* मिस्र - पांच हजार वर्ष पुरानी दुनिया में यात्रा

"मैं खुदा से दुआ करुंगा कि, "यदि किसी कारणवश मेरा अगला जन्म मिस्र में नहीं होने पाये तो फिर मुझे हिन्दुस्तान की जमीन पर ही पैदा करना". यह सुनकर मैं चौंक गया". फिर जब मैने इसका मर्म समझा तो कहा, "शुक्रिया, मैं भी दुआ करुंगा कि खुदा आपकी हर तमन्ना करे. लेकिन हिन्दुस्तान आने के लिये आपको अगला जन्म लेने की आवश्यक्ता नहीं है. आपका हिन्दुस्तान में इसी जन्म मे स्वागत है,  आप अवश्य आयें व जब तक चाहें मेरे मेहमान बनकर रहें. 

गर्मीयों में एक खुबसुरत शाम के वक्त मिस्र के दुसरे सबसे बडें तटीय शहर अलेक्जेन्ड्रीया (अरबी मे अल - सिकन्दरीया) में समन्दर के किनारे एक छोटे मगर खुबसुरत से इजीप्शीयन स्टाईल से सजे रेस्टोरेंट में, मैं मेरे मेजबान एवं मित्र मोहम्मद अल मादी के साथ भोजन के लिये आया था. शाम को उस वक्त वहां भीड थी. रेस्टोरेंट के मालिक नें मुझे शक्ल सुरत से हिन्दुस्तानी जानकर मेरे पास आकर मुझसे पुछा, "हिन्दी" (मतलब - क्या आप हिन्दुस्तानी हैं ?), मेरे हां कहने पर वह मोहम्मद से अरबी में बोला, कि आपके हिन्दी मित्र का यहां तहेदिल से स्वागत है.


रेस्टोरेंट मालिक मुबारीक को इन्गलिश अच्छे से नहीं आती थी, पर मुझसे बातचीत करने के लिये उसने,

स्वयं को अंग्रेजी, हिन्दी व अरबी भाषाओं का जितना भी ज्ञान था, उसका भरपुर उपयोग करने की कोशिश की.

हालांकी मेरे मित्र मोहम्मद नें अरबी को अंग्रेजी में अनुवाद कर दुभाषिये का रोल बखुबी निभाया. मुबारिक नें मुझसे हिन्दुस्तान व अमिताभ बच्चन के बारे में कई प्रश्न पुछे, और उनकी कई फिल्मों के नाम बताने के साथ साथ प्रसिद्ध डायलाग भी सुनाये. जिस उत्साह से वह अमिताभ जी के बारे में चर्चा कर रहा था, उससे लगता था कि वह उनका बहुत बडा प्रशंसक है. चर्चा के दौरान जब मुबारिक ने मुझसे पुछा कि, क्या मै कभी अमिताभ बच्चन से मिला हुं?. अब मेरे लिये असमंजस की स्थिती उत्पन्न हो गयी, क्योकि यदि मैं सच्चाई बतला देता हुं कि नहीं कभी नहीं मिला तो मुबारीक का दिल टूट जायेगा. फिर मैने उसका दिल रखने के लिये झुठ बोलना ही उचीत समझा. 


जैसे ही मैने बताया कि, हां मैं अमिताभ जी से मिला हुं, तो फिर उनके बारे में ढेर सारे प्रश्नो की बौछार शुरु हो गयी. उसके सारे प्रश्नों के जवाब मैने अपने सामान्य ज्ञान के आधार पर ही दिये. फिर मुबारीक नें उत्साह में आकर अपने स्टाफ के अन्य सदस्यों को आवाज देकर मेरे पास बुला लिया, और मुझसे यह कह कर मिलवाया कि मै अब उसका हिन्दी मित्र हुं, जो अमिताभ बच्चन से मिल चुका हुं. सारा स्टाफ मुझसे बडी गर्म जोशी से मिला. मेरे इस छोटे से झुठ नें इन लोगों को उस वक्त खुशीयां तो दे दी. किन्तु अब मुझे लगता है कि मुझे भविष्य में दोबारा मिस्र जाने से पहले अमिताभ जी के एक बार दर्शन करना ही पडेंगे, ताकि झुठ बोलने से बचा जा सके.

इसके बाद मुबारिक ने वेटर से मेरे लिये स्पेशल 
डीश बनाने के लिये कहा. पर मेरे यह बतानें पर की मैं शुद्ध शाकाहारी हूं,  वह थोडा चिन्तित हुआ. फिर उसने मुख्य खानसामे को बुलाकर मेरे लिये विशेष भोजन का इंतजाम किया. जिसके फलस्वरुप दो मसालेदार हरी सब्जीयां, रोटी (हमारी तन्दुरी रोटी से मिलती जुलती), सलाद के साथ ही दुध - चावल - ड्राय फ्रुट से बनी खीर परोसी गयी. खाना वाकई में लजीज था. खीर की मात्रा बहुत ज्यादा थी जो मुझसे नही खायी जा सकी तो उसने ने बची हुई खीर को साथ ले जाने को पेक कर दी, और कहा कि इसे होटल मे जाकर फ्रीज में रख देना कल काम आ जायेगी. मैनें पाया कि अधिकांश मिस्री रेस्तरांओं में भोजन परोसने के लिये थाली का उपयोग नहीं होता हैं, वे सब्जी को किसी छोटी प्लेट में परोस कर, रोटी को लकडी की मेज पर ही रख देते हैं. पहली बार थोडा अजीब लगा, पर जैसा देश वैसा भेष.

हमें खाना खत्म करते करते रात के साढे नौ बज गये, और हमारी काहिरा जाने वाली ट्रेन दस बजे थी. हमें अमिताभ बच्चन पुराण व स्पेशल डीश के चक्कर मे लगभग आधा घंटा की देरी हो गयी थी. जब हम

रेस्टोरेंट से बाहर आये तो रेल्वे स्टेशन जाने के लिये कोई टेक्सी नहीं मिली, तो मै थोडा सा घबरा गया कि अगर यह ट्रेन चुक जाती है तो फिर अगली ट्रेन फिर दो घंटे बाद रात को बारह बजे थी. तभी मुबारीक ने कहा कि आप चिन्ता ना करें, मै अपनी कार से आपको रेल्वे स्टेशन तक छोड देता हुं, पर तभी अचानक एक टेक्सी आकर रुकी और फिर हमने दौडते भागते अपनी ट्रेन पकडी.

अलेक्जेन्ड्रीया का 120 मीटर उंचा लाईट हाउस विश्व के सात महान आश्चर्यों में से एक था. सिकन्दर

महान नें अपनी विश्व विजय यात्रा के दौरान मिस्र पर अपनी जीत को यादगार बनाने के लिये 332 BC में मेडीटेरियन समुद्र पर एक नये शहर को बनाने का आदेश दिया. उसके बाद वह भारत की ओर निकल पडा और फिर कभी दोबारा लौट कर यहां नहीं आ पाया. क्योंकि भारत से अपने घर मेसेडोनिया (हिन्दी में मकदुनिया) लौटते समय बेबीलोन मे मात्र 32 वर्ष की अल्पायु में ही उसकी मृत्यु हो गयी थी. इस प्रकार वह अपने नाम पर बसाये गये, इस खुबसुरत शहर को कभी नहीं देख पाया. 

वर्तमान में अलेक्जेन्ड्रीया तीस लाख की आबादी वाला मिस्र का दुसरा सबसे बडा शहर है. यहां का विश्व
प्रसिद्ध वाचनालय जो टोलेमी प्रथम द्वारा बनाया गया था, आज भी दुनिया के सबसे बडे वाचनालयों मे से एक है, जिसे बहुत पहले एक बार जला दिया गया था व इसे दुबारा बनाया गया था. इस भवन की खुबसुरती आज भी दुनिया भर के विध्यार्थियों के साथ सैलानियो को भी अपनी ओर आकर्षित करती है. यहां समुद्र तट पर बना कीतबे सीटाडेल एक पीले पत्थरों का बना हुआ खुबसुरत सा छोटा सा किला है. इसी के पास स्थित है "अबुल - अबास अल - मुर्सी मस्जीद". शहर के मध्य संकरा सा "जान्केत अल सेटाट बाजार"  मे बिकने वाले कई सामान आपको आकर्षित कर सकते हैं.

अमिताभ बच्चन मिस्र में बहुत प्रसिद्ध हैं, यह बात मुझे काहिरा इन्टरनेशनल एयर पोर्ट पर उतरते ही पता चल गयी थी. जब वीजा जांच अधिकारी ने मेरा भारतीय पासपोर्ट देखकर मुझसे कहा, "आप अमिताभ बच्चन के देश से आये हो, आपका मिस्र में स्वागत है". यह सुनकर चौंक गया, क्योंकि मै अमिताभ जी की इस प्रसिद्धी से परीचित नहीं था. बाद मै सारे मिस्र में जिस किसी से भी मिला, उसने मुझसे अमिताभ जी के बारे में जरुर पुछा.  मोहम्मद ने मुझे बताया कि अमिताभ बच्चन यहां इतने प्रसिद्ध हैं कि अगर वे मिस्र से राष्ट्रपति का चुनाव भी लडें, तो जीत सकते हैं.



मिस्र या इजिप्ट का अधिकारीक नाम "दि अरब रिपब्लिक आफ इजीप्ट" है, जो अफ्रीका व एशिया दोनों महाद्विपों में फैला हुआ है. इसका क्षेत्रफल लगभग दस लाख वर्ग किलोमीटर होकर यह दुनिया के सबसे बडे सहारा मरुस्थल के उत्तर पुर्वी भाग में स्थित है. इसकी लम्बाई 1055 किमी व चौडाई 1250 किमी है. इसका उत्तरी हिस्सा मेडिटेरीयन सागर को छुता है, वही पुर्वी किनारे पर लाल सागर है. इसका पवित्र बाईबिल में वर्णित सीनाई पहाडी वाला हिस्सा एशिया में है. स्वेज नहर देश को अफ्रीका व एशिया दो भागों में विभक्त करता है. इसी स्वेज नहर से होकर ही एशीया से युरोप में जाया जाता है. पर्यटन के अलावा स्वेज नहर मिस्र का एक बडा आर्थिक स्तोत्र है. मिस्र की भौगोलिक स्थिती इसे विश्व के मानचित्र में एक महत्वपुर्ण स्थान दिलाती है. मिस्र की आबादी लगभग आठ करोड है, जो नील नदी के दोनों किनारों पर बसी है. यहां की आबादी 90% मुस्लिम, व बचे हुए 10% क्रिश्चियन व अन्य धर्मावलम्बी हैं.

मैने मिस्र वासियों व  हिन्दुस्तानियों में कुछ  समानतायें देखीं,  जैसे की चेहरा मोहरा  थोडा बहुत मिलता जुलता है. पश्चिमी देशों मे कई बार मिस्र वासियों को हिन्दुस्तानी समझ लेने की भुल हो जाती है. शायद इसके मुल में हजारों साल पुरानी आर्य सभ्यता रही होगी. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि ईरान के आसपास के क्षेत्र से आर्यों का एक दल जिस प्रकार लगभग सात - आठ हजार वर्ष पुर्व में हिन्दुस्तान की ओर बढा. ठीक उसी समय दुसरा दल पश्चिम में अरब के रेगिस्तान को पार कर अफ्रीका मे मिस्र तक जा पहुंचा. जहां उन्होनें नील नदी के किनारे उपजाउ भुमी पर मिस्री सभ्यता को विकसीत किया.


मिस्री सभ्यता की शुरुआत आज से लगभग 7500 वर्ष पुर्व होने लगी थी. यह वही काल था जब आर्य


सभ्यता अपना वजुद ईरान व केस्पियन सागर के आसपास के हिस्सों मे बनाती हुई भारत की ओर बढ रही थी. इतिहास में कई ऐसे प्रसंग आते हैं जिससे ऐसा लगता है कि इन दोनों महान सभ्याताओं में कहीं ना कहीं कोई समानता है जो, यह इंगित करती है कि दोनों की जडें एक ही रही होंगी. जैसे कि हमारे भगवान "राम" व उनके फराओ "रामसेस" के नाम में समानता. हालांकी मिस्री सभ्यता तो कब की खत्म हो गयी लेकिन आर्य सभ्यता आज भी मौजुद है.मिस्री शासक टोलेमी द्वितीय (309 BC) के कहने पर सर्वप्रथम मिस्री राजपुरोहित मानेटोन ने आज 2300 वर्ष पुर्व, मिस्री इतिहास को लिपिबद्ध करनें की कोशिश . उसके अनुसार प्राचीन मिस्र पर फराओ काल के दौरान लगभग 2700 वर्षों के दौरान 30 राजवंशों ने शासन किया था. मिस्र में महाराजा या बादशाह को फराओ कहते थे. इस प्रकार प्रत्येक राजवंश के अनेको फराओं ने मिस्र पर शासन किया जो अपने पुर्ववर्ती फराओ के पुत्र या नजदीकी रिश्तेदार ही होते थे. हम एक मिस्री राजवंश की तुलना हमारे मुगल वंश से कर सकते हैं, इस प्रकार के कुल तीस विभिन्न राजवंशो ने प्राचीन मिस्र पर शासन किया. 

मिस्री लोग बेहद खुशमिजाज, दोस्ताना व मिलनसार होते हैं. वे विदेशियों की ओर बहुत जल्दी आकर्षित होते हैं, और उनसे बातचीत व मदद करने को उत्सुक रहते हैं, चाहे उन्हे हमारी भाषा समझ में आये या ना आयें. वे हिन्दुस्तानियों को बेहद सन्मान देते हैं.  अगर आपनें किसी से कोई पता पुछा तो मुमकीन है कि वह आपके साथ ही चन्द कदम चलकर आपको वहीं छोडकर आ जाये.  मोहम्मद ने मुझे एक विशेष बात बतलाई जिससे मुझे अपने हिन्दुस्तानी होने पर फक्र महसुस हुआ. चुंकी हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी दिखने में लगभग समान होते हैं, अतः मिस्र वासी आपसे मिलने पर सबसे पहले पुछते हैं कि हिन्दी (मतलब हिन्दुस्तानी) ? यदि आपने हां कहा तो आपसे खुशी से मिलेंगे वरना जैसे ही उन्हे पता चलेगा की आप पाकिस्तानी हैं तो फिर उनके चेहरे की पर झलक रहा अपनत्व खत्म हो जायेगा और फिर वे आपको उतना सन्मान नही देंगे.


नारमर नें आज से लगभग 5060 वर्ष पुर्व (3050 BC)  उपरी व निचले दोनों मिस्र को जीत कर, मिस्र के पहले फराओ का खिताब हासिल किया था. इस विजय की दास्तान को कहता हुआ शिलालेख काहिरा के इजिप्शियन म्युजियम के सबसे महत्वपुर्ण दस्तावेज के रुप में मिस्र की शान बढा रहा है. नारमर को मेनेस भी कहा जाता है इसका मतलब है फाउंडर. नारमर ने मेंफिस को मिस्र की पहली राजधानी बनाया.

इसके बाद पिरामिड युग की शुरुआत हुई, जिसमें तीसरे राजवंश के पहले शासक "जोसेर" नें सक्कारा में आज से 4660 वर्ष पुर्व पहला स्टेप पिरामिड (सीढीनुमा) बनाया. इसके बाद मिस्र के चौथे राजवंश के महान फराओ स्नोफ्रु, खुफु (चिओप्स), खेफ्रेन (खाफ्रे) एवं मंकारे का शासनकाल आया जिसमे उन्होनें आज से लगभग 4500 से 4600 वर्ष पुर्व विश्व के सात महान आश्चर्यं में सम्मिलित गीजा के महान पिरामिडों को बनाया जो मानव सभ्यता के विकास की दास्तान को कहने के लिये काहिरा महानगर के पश्चिमी किनारे पर नील नदी के नजदीक आज भी पुरे दम-खम के साथ खडे हैं. 


मिस्र के इतिहास में फराओ काल जो लगभग 2700 वर्षों तक रहा, को कई कालखंडों में विभाजित

किया गया है. जिसमें मिस्र के पहले फराओ नारमर के शासनकाल 3050 बी.सी. (आज से 5063 वर्ष पुर्व) से लेकर छटे राजवंश की समाप्ती 2198 बी. सी. (आज से 4210 वर्ष पुर्व) तक के कालखंड को आर्कीयक काल कहते हैं. इसी काल के आसपास हमारे भगवान राम व रामायण काल रहा होगा. इसके बाद का प्रथम इंटरमिजीएट कालखंड सातवें राजवंश से बारहवें राजवंश के शासन की समाप्ती (1759 बी.सी.) तक जारी रहा. यह लगभग वही समय था, जब भगवान श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र के युद्ध के मैदान में अर्जुन को गीता का पाठ पढाकर महाभारत युद्ध की शुरुआत की.

फिर इसके बाद शुरु हुआ द्वितीय इंटरमिजीएट कालखंड जो सतरहवें राजवंश से साथ (1539 बी.सी.) में खत्म हुआ. इसके बाद का कालखंड कहलाता है न्यु किंगडम, जो बीसवें राजवंश की समाप्ती (1050 बी.सी.) तक चला. फिर शुरु हुआ तॄतीय इंटरमिजीएट कालखंड कालखंड जो (664 बी.सी.) में जाकर पच्चीसवें राजवंश के साथ समाप्त हुआ. इसके बाद का अंतीम कालखंड जो (343 बी.सी) तक तीसवें राजवंश के अंत तक चला, जिसके के साथ् ही मिस्र का प्राचीन फराहो काल आज से करीब 2340 वर्ष पुर्व समाप्त हो गया. यह वही समय था जब भारत में बुद्द व महावीर के निर्वाण के बाद अनेकों धार्मिक, राजनेतिक व सांस्कृतिक बदलाव आये थे. इसी दौरान सिकन्दर महान भी मिस्र पर अपनी विजय के बाद भारत में भी आया था. सम्राट अशोक, चन्द्रगुप्त मौर्य, चाणक्य इत्यादी भी उसके समकालिन थे.


तीसवें राजवंश की समाप्ती के बाद प्राचीन मिस्री इतिहास ने एक नये युग में प्रवेश किया. सन 332 बी.

सी. में सिकन्दर महान के मिस्र पर आक्रमण के वाद मेसेडोनियन शासनकाल शुरु हुआ, जो बहुत ही अल्प समय तक रहा किन्तु उसकी मॄत्यु के तत्काल बाद ही ग्रीक शासकों का टोलेमी शासनकाल शुरु हुआ जो 305 बी.सी. से 30 बी.सी. तक जारी रहा. जिसनें प्राचीन मिस्री सभ्यता पर अपनी अमिट छाप छोडी और कला, संस्कॄती, भवन निर्माण इत्यादी के क्षेत्र में एक महत्वपुर्ण बदलाव ला दिया. यहां तक की इसके बाद की ममीयां (मिस्री ताबुत) को सजाने का काम भी ग्रीक कला के अनुसार होने लगा. टोलेमी राजवंश के हर राजा ने टोलेमी के नाम से शासन किया व रानियों में से अधिकांश ने अपना नाम क्लियोपेट्रा रखा. इनमें से सबसे प्रसीद्ध शासक क्लियोपेट्रा सप्तम थीं, जो अपनी खुबसुरती के लिये प्रसिद्ध थीं. इसके व प्रसिद्ध रोमन शासक जुलियस सीजर के पुत्र "सिजारियन" के पैदा होने के साथ ही मिस्र रोमन साम्राज्य में शामिल हो गया.

फिर इसके कुछ समय बाद बाईजेंटाईन शासकों का दौर आया जिन्होनें सन 642 तक क्रिश्चीयन धर्म को तुर्की से साथ साथ मिस्र का भी मुख्य धर्म बना दिया. लेकिन फिर पुर्वी अरब से एक नये धर्म की विशाल आंधी चली जिसके प्रवाह में सम्पुर्ण मिस्र नें इस्लाम धर्म कबुल कर लिया.  फिर बाद अनेकों सदियों तक मिस्र पर सिरीयन, इराकी, कुर्दों व आटोमान आदी के रुप में अनेकों विदेशी किन्तु मुस्लीम शासकों का शासन रहा जो फ्रांसिसी शासक नेपोलियन बोनापार्ट की मिस्र पर जीत के साथ ही सन 1798 में समाप्त हो गया. फिर इसके कुछ ही समय बाद अंग्रेजों नें मिस्र पर कब्जा कर लिया. और फिर आखिरकार 2300 साल बाद वह समय आ ही गया जब मिस्री लोगों ने खुद मिस्र पर शासन किया. सिकन्दर के आगमन के साथ शुरु हुआ विदेशी शासकों का दौर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दुनिया भर में आये राजनैतिक बदलाव के कारण अंग्रेजो के मिस्र छोडने साथ ही सन 1952 में खत्म हुआ. अब मिस्र एक गणराज्य घोषित हुआ. हालांकी पिछले वर्ष हुई क्रान्ती के बाद तानाशाह होस्नी मुबारक को हटाने के साथ ही एक सरकार का गठन हुआ, जिसके बारे में भी समाचारों से पता चलता है कि मुर्सी के नेतृत्व वाली यह नई सरकार भी जनता को पसंद नहीं है.


रामायण व महाभारत के काल में निर्मित किसी भी ऐताहासिक भवन का कोई अवशेष आज हिन्दुस्तान

में सलामत नहीं बचा है. अब हमारे पास सिर्फ मौखीक रुप से सहेजी गयी इनकी विशाल गाथाएं हैं, जिसमे भी बाद के समय मे तडका लगा कर उन घटनाओं को बढा चढा-कर महिमा मंडित करने की कोशिश की गयी है. जैसे की आज जिस रामायण को हम पढते हैं, वह तुलसीदास जी द्वारा 500 वर्षों पुर्व लिखी गयी थी, जबकी असल मे रामायण काल लगभग 4000 वर्ष पुर्व का रहा होगा.


जबकी गीजा के महान पिरामिड अपने निर्माण के पांच हजार वर्षों बाद भी अपनी सभ्यता की महानता की दास्तान कहने के लिये आज भी सिर उठा कर शान से खडे हैं. आर्य सभ्यता व मिस्री सभ्यता में एक महत्वपुर्ण अंतर जरुर है कि समय, पानी व धुप की मार नें भले ही वे हमारे प्राचीन ऐतिहासिक सबुत जैसे नगर, भवन आदी भले ही खत्म कर दिये हों. लेकिन पिछले पांच हजार वर्षों से आर्य सभ्यता, काल के अनेकों थपेडे सहने के बाद भी, वह आज भी सही - सलामत खडी है. जिस प्रकार मिस्र को सिकन्दर महान के आक्रमण के बाद से भी अनेकों विदेशी ताकतों ने ललचाया, और वे अपने शासन के साथ-साथ अपने धर्म को भी जनता पर थोपने में सफल रहे. ठीक उसी प्रकार भारत पर भी सिकन्दर के आक्रमण के बाद से अनेकों विदेशी ताकतों ने शासन किया परन्तु वे हमारी आर्य सभ्यता को मिटाना तो ठीक, खरोंच भी नहीं पाये, वरन उल्टे ही वे हिन्दुस्तानी रंग मे रंग गये.


मुझे तो हिन्दुस्तानी और मिस्री पुलिस भी एक समान दोस्ताना ही लगी. मेरे एक अनुभव काहिरा

(इंग्लिश में केरो, अरबी में अल - काहिरा) में उतरते ही हुआ. एयरपोर्ट से बाहर निकलने के बाद मै गेट के बाहर खडा होकर अपने मित्र मोहम्मद का इन्तजार कर रहा था, किन्तु वह पन्द्रह मिनट बाद भी नही दिखा तो मुझे फिक्र होने लगी. मैने आसपास सार्वजनीक टेलीफोन ढुंढा पर नहीं मिला. तब मुझे परेशान देखकर ड्युटी पर तैनात सफेद झक ड्रेस में एक पुलिस वाला मेरे पास आया व अरबी में कुछ पुछा जिसे मै समझ नहीं पाया, तो उसनें एक दुसरे पुलिस वाले मित्र को बुला लिया जो इंगलिश जानता था. फिर जब उसे पता चला कि मैं अपने दोस्त का इन्तजार कर रहा हुं और उसे फोन करना चाहता हुं तो उसने अपने मोबाईल से मोहम्मद से बात करा दी. तो पता चला कि वह रास्ते में था और उसे पहुंचने में तकरीबन 15 मिनट और लगने थे.

अब मैनें उन दोनो पुलिस वालों को धन्यवाद दिया, और बतौर औपचारिकता के टेलीफोन काल के लिये पैसे का प्रस्ताव रखा, तो उसने तुरंत हां कर दी. अब मैने अपनी जेब टटोली तो मेरे पास सबसे छोटे नोट के रुप में दस युरो ही थे, क्योंकि मै जर्मनी से मिस्र आ रहा था, और मैने अभी स्थानीय मुद्रा नहीं खरिदी थी. मैंनें सोचा था कि मोहम्मद के आने के बाद बाजार से युरो के बदले में मिस्री मुद्रा "इजिप्शियन पाउंड" ले लुंगा. अतः मजबुरी में मुझे उसे दस युरो देना पडे, तो उसने मुझसे कहा कि ऐसा ही एक नोट मेरे दोस्त को भी दे दो. हालांकी उस समय पैसे का पुछते समय मुझे लगा रहा था कि जिस खुशमिजाजी से वह बात कर रहे हैं, तो वे एक लोकल काल लगाने के पैसा नहीं लेंगे. पर मै भुल गया कि, उस वक्त मै मिस्री पुलिस से बात कर रहा था. और अंत में मुझे एक लोकल फोन काल के लिये बीस युरो का भुगतान करना पडा, जो लगभग चौदह सौ रुपये के बराबर होते है.


अब वे दोनों मोहम्मद के आने तक, मेरे साथ खडे रहकर बहुत ही दोस्ताना अंदाज में मेरा मन बहलाने

की कोशिश करते रहें. उन्होनें मुझे अमिताभ बच्चन की कई फिल्मों के डायलाग सुनाये, और इस यह से मुझे लगा कि इजीप्शियन पुलिस भी हिन्दुस्तानी पुलिस की तरह पैसा मिलने पर दोस्ताना व्यवहार ही करती है. बाद में जब यह किस्सा मैने मोहम्मद को बतलाया तो वह बहुत हंसा और बोला कि अच्छा रहा तुम सस्ते में छुटे. यह तो ठीक रहा की उन पुलिस वाले के साथ उसका कोई बडा अफसर नहीं था, नहीं तो उसके ओहदे के मान से तुम्हें पचास युरो देने पड जाते.

धर्म का प्राचीन मिस्री राजा व प्रजा दोनों के जीवन में बडा प्रभाव था. इतिहास के शुरुआती तीन हजार

वर्षों में फराओ कालिन शासनकाल के दौरान उनके अपने देवी देवता थे. जिसके अनुसार मिस्री फराओ को देवता व आम जनता के बीच की कडी माना जाता था, जिसके कारण से फराओ को विशेष सन्मान मिलता था. प्राचीन मिस्री विश्वास करते थे कि शुरुआत में पुरी दुनिया पानी से भरी थी. जिसमें से पहले सुर्य देवता आतुम-रा अवतरित हुए, जिन्हें सॄष्टी का बनाने वाला भी कहते हैं. फिर उन्होनें वायु देवता शु के बाद वातावरण में नमीं की देवी टेफनुट को बनाया. इसी प्रकार प्राचीन मिस्र में ओसीरिस, आमुन, मिन, टाह, खोनसु, बेस, मुट, माट, सेलकीस, हाथोर, इसीस, नील, सेखमेत, अनुबीस, खानुम, होरस, रा, सोबेक जैसे अनेकों देवी देवताओं की पुजा का प्रचलन था. ये देवी देवता भी आदीकालिन आर्य सभ्यता के देवी - देवताओं के समान ही किसी ना किसी प्राकृत्रीक शक्ती के साथ जुडे रहते थे, जैसे सुर्य, पानी, आग, म्रूत्यु, वायु इत्यादी. उनका प्राचीन धर्म, देवी - देवता, रिती-रिवाज निश्चित रुप से उस समय काफी ताकतवर रहे होंगे किन्तु आज उनका नाम लेने वाला कोई नहीं बचा है. जबकी हिन्दुस्तान में आज भी पांच हजार साल पुरानी वैदिक संस्कृती व देवी देवता विध्यमान हैं.  

सन 56 में सेंट मार्क के अलेक्जेन्ड्रिया में आगमन के साथ ही, मिस्र में आहिस्ता आहिस्ता क्रिश्चियन धर्म

का प्रचार होने लगा. किन्तु सन 284 में रोमन राजा डिओक्टीयन नें हजारों क्रिश्चियनों का कत्लेआम करवा दिया. फिर उसके बाद बाईजेंटीन शासकों नें अपने तुर्की पर शासन के दौरान मिस्र पर भी विजय हासिल कर ली और क्रिश्चियन धर्म को मिस्र का राजधर्म घोषित कर दिया. लेकिन सन 640 में अरब सेनापती "अमर इब्न अल एस" नें मिस्र फतह किया और लगातार कई युद्धों के बाद पुरे मिस्र को मुस्लिम राज्य में बदल दिया. इस साहसी सेनापती नें अल-फुस्तात को अपनी नई राजधानी बनाया. इसी स्थान पर उन्होनें अफ्रीका की पहली मस्जीद जो उनके स्वयं के नाम पर थी बनाई. तबसे लेकर आज तक इस्लाम ही मिस्र का मुख्य धर्म है. हालांकी इस दौरान मिस्र पर अनेकों विदेशी ताकतों नें शासन किया किन्तु मिस्र इस्लामीक राष्ट्र ही बना रहा.

काहिरा मिस्र की सबसे नई राजधानी है, इसके पुर्व में मिस्र की कई राजधानियां रही हैं. सन 969 में जवाहर अल सेकुली नें पुरानी राजधानी अल-फुस्तात व अल कताई के पास ही अपना एक नया शाही आवास बनाया जिसे अल-काहिरा नाम दिया गया, जिसका मतलब है आने वाला. जिसे सलादीन नें 1176 में दोनों पुरानी राजधानियों व शाही आवास को मिलाकर पुरे मिस्र पर शासन करने के लिये नई राजधानी का गठन किया जिसका नाम भी उसने अल-काहिरा ही रखा. आज यह महानगर में तब्दील हो गया जिसकी आबादी लगभग एक करोड सत्तर लाख है. यहां की अल - अजहर इस्लामिक युनिवर्सिटी दुनिया की सबसे पुरानी व बडी इस्लामिक युनिवर्सिटी मानी जाती है, जो सन 971 में बनाई गयी थी. काहिरा में गीजा के पिरामिड, स्फिंक्स, कोप्टीक म्युजियम, सीटाडेल, हेंगिंग चर्च, अल फुस्तात मस्जीद, 180 मीटर उंचा केरो टावर, खान अल खलिली बाजार इत्यादी अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों के पसंदीदा स्थल हैं.


काहिरा की सडकों पर मैने कारें बहुतायत में देखी, वहीं दुपहिया वाहन इक्का दुक्का ही दिखे. ऐसा नहीं है कि यहां के लोग अमीर है, पर शायद पेट्रोल सस्ता होने के कारण कार का उपयोग ज्यादा होता है.

गरीबी तो यहां भी दिखी, भिखारी भी यहां दिखे. सारे मिस्र में खोमचे वाले, रेहडी वाले, फुटपाथ पर दुकाने, उसी प्रकार दिखे जैसे हमारे हिन्दुस्तान मे दिखते हैं. हां यहां का बाजार रात को लगभग एक - दो बजे तक खुला रहता है. शायद दिन में गर्मी अधिक होने के कारण लोग-बाग रात को निकलना पसंद करते है. मुम्बई की तरह काहिरा भी रात भर जागता रहता है. शुक्रवार की नमाज मस्जीदों मे भीड होने के कारण बीच - बाजार में सडक पर ही जाजम बिछाकर नमाज पढने का रिवाज है.

मोहम्मद का काफी आग्रह था कि मैं उसके घर पर रुकुं पर मैं थोडी आजादी चाहता था, अतः मैने जिद करकर उससे डाउन टाउन में ठहरने की व्यस्थता करने को कहा. मेरा होटल तलत हर्ब स्ट्रीट में था, जिसके एक किनारे से लगा था "मैदान अल तहरीर" (इंगलिश मे लिबरेशन स्क्वायर) जो पिछले वर्ष में घटीत क्रान्ती का गवाह बना. इसी मैदान पर बसा है विश्व प्रसिद्ध इजीप्शियन म्युजीयम, व नजदीक से ही बहती है विश्व प्रसीद्ध नील नदी. मै जिस होटल मे ठहरा था, दस माला उंचा भवन था, उसी मे नीचे की मंजील में भारतीय दुतावास का वीजा सेक्शन था. उससे एक मंजील ओर नीचे भारत सरकार द्वारा योगा, व अन्य कई चीजें सीखाई जाती हैं. इसी स्ट्रीट में बिलकुल ही नजदीक में भारत सरकार द्वारा संचालित इण्डीयन हेबीटेट सेंटर भी था, जिसमें मिस्र वासियों को भारतीय संस्कृती के बारे में जानकारी दी जाती है. यहां एक लायब्रेरी व प्रदर्शनी भी है. साल में एक दो बार किसी प्रतियोगिता का आयोजन भी होता है.


अगले दिन सुबह जब मैं होटल से नीचे उतर रहा था तो तल मंजील के द्वार पर मेरी मुलाकात वीजा

सेक्शन के एक अधिकारी से हो गयी. चर्चा में उन्होने बताया कि यहां की आम जनता के मन में भारतीयों के प्रती बहुत सन्मान है. अमिताभ बच्चन व भारतीय फिल्में यहां बहुत प्रसिद्ध हैं. पहले तो टेलीविजन पर लगातार हिन्दी फिल्में दिखाई जाती थी, तब आम आदमी अपने रोजमर्रा के व्यवहार में भी फिल्मों को देखकर भारतीय संस्कृती की नकल करने लग गये थे.  तो यहां के कट्टर पंथीयों को लगा की भारत की ओर से कही उसी प्रकार सांस्कॄतीक हमला ना हो जाये, जैसे की सदियों पुर्व चीन सहीत दक्षीण पुर्व एशिया के अनेकों देश बौद्ध धर्म के प्रवाह में बह गये थे. इसी डर से हिन्दुस्तानी फिल्मों व टेलीविजन चेनलों पर यहां प्रतिबंध लगा दिया गया. अगर यह प्रतिबंध जारी रहा तो आने वाली पीढी निश्चित रुप से भारतीय फिल्मों के साथ ही अमिताभ बच्चन को भी भुल जायेगी. हालांकी फुटपाथ पर भी आज भी अमिताभ बच्चन व अन्य प्रसिद्ध हिन्दी फिल्मों की फिल्मों की अरबी भाषा में डब की हुई सी.डी. आसानी से मिल जाती हैं.

नील नदी मिस्र के साथ ही सम्पुर्ण उत्तर पुर्वी अफ्रीका महाद्वीप में आवागमन का बहुत बडा माध्यम है. इस पर यातायात के लिये नाव, स्टीमर आसानी से उपलब्ध होते हैं. काहिरा में भी मेरी होटल से नजदीक ही नील नदी के किनारे ढेर सारे स्टीमर व पानी के जहाज खडे रहते है, जो मात्र तीन से पांच पाउंड लेकर एक घंटे तक भ्रमण कराते हैं. यह सभी स्टीमर वाले बहुत तेज आवाज में डी.जे. पर अरबी गीत - संगीत बजाते हैं, जो भाषा समझ मे नहीं आने के बाद भी मधुर लगता है. हां अधिकांश गानों में एक शब्द हबीब व हबीबी जरुर से समझ में आ जाता है. नील नदी के किनारे खडे कई स्टीमर खुबसुरत रेस्तरां में तब्दील कर दिये गये हैं. नील नदी के किनारे काहिरा के अनेक एतिहासिक महत्व के भवनों के अलावा फोर सीजन, हयात, नोवाटेल, जैसे अनेकों पंचसितारा होटल खडे हैं. विशेषकर रात्री को स्टीमर से भ्रमण कर काहिरा की छटा देखना एक यादगार अनुभव है.


मै जब तक काहिरा में रहा, लगभग रोज ही शाम को नील नदी स्टीमर से घुमने जाता था. एक बार स्टिमर में मेरे पास एक परिवार बैठा था, उनके साथ एक प्यारा सा लगभग दस साल का बच्चा भी था.

वह मुझे देखकर मुस्कराया, और मेरे पास आकर बोला, हिन्दी ? मेरे हां कहने पर फिर वह अपने माता - पिता के पास गया, और फिर लौटकर आकर मुझसे बोला, वेलकम टु इजीप्ट. उसे अंग्रेजी ज्ञान कम ही था, पर उसकी मुझसे बात करने की इच्छा पुरी थी, अतः वह पुरे सफर के दौरान अपने प्रश्न अपने माता - पिता से अंग्रेजी में अनुवाद कराकर मुझसे बात करता रहा. पर उसने अमिताभ बच्चन का एक बार भी नाम नहीं लिया, इसका मतलब साफ था कि भारतीय टी.वी. चेनलों व फिल्मों प्रतिबंधों के कारण अब आने वाली नई मिस्री पीढी अमिताभ बच्चन को नहीं पहचानती है.

"मिस्र नील नदी का उपहार है" यह शब्द युनानी इतीहासकार हेरोडोट्स नें आज से पच्चीस सौ वर्ष पुर्व लिखे थे. लगभग 6650 कि.मी. लम्बी नील संसार की सबसे लम्बी नदी है जो 10 देशों अपना सफर तय करती हुई, अंत में मिस्र की दक्षिण दिशा से प्रवेश करती हुई उत्तर दिशा में मेडीटेरीयन समुद्र में मिल जाती है. आपने गौर किया होगा कि दुनिया की सारी नदीयां पॄथ्वी की भौगोलिक बनावट व गुरुत्वाकर्षण के कारण उत्तर से दक्षिण की ओर बहती है लेकिन नील नदी दुनिया की एक मात्र नदी है जो विज्ञान के नियमों को धता बताती हुई दक्षिण से उत्तर की ओर बहती है. इसी कारण मिस्र वासी हजारों वर्षों से दक्षिणी भाग को उपरी मिस्र (अपर इजीप्ट) व उत्तरी भाग को निचला मिस्र (लोअर इजीप्ट) कहते हैं. अफ्रीका के वर्षा वनों मे होने वाली वाली बरसात व विक्टोरीया लेक के पानी के कारण ही सहारा रेगीस्तान मे बडे शान से नील नदी साल भर समान वेग से बहती है. व्हाईट नील व ब्लु नील इसकी दो मुख्य सहायक नदीयां हैं जो आपस में सुडान की राजधानी खारतुम के पास से मिलकर नील नदी का निर्माण करती है. समुचा मिस्र सहारा रेगीस्तान मे फैला हुआ है. इस रेतीले देश में नील नदी का होना एक सुखद आश्चर्य है. यह हमारी गंगा नदी से लगभग ढाई गुना ज्यादा लम्बी है. पर अब हमारी गंगा अब गंदगी में तब्दील होती जा रही है, वहीं नील साफ - सुथरी है. हर मौसम में पानी का प्रचंड बहाव. मिस्र को नील नदी का उपहार क्यो कहते है, यह तो उसे देखकर ही समझ में आ जाता है.


मिस्र की सारी आबादी नील नदी के दोनों किनारों पर ही बसी है, बाकी समुचे मिस्र में सिर्फ रेत के टीले ही नजर आते हैं. आप भी इसे घर बैठे गुगल अर्थ पर इंटरनेट के माध्यम से देख सकते है. प्राचीन फराओ कालिन मिस्र में जनता नील नदी के पुर्वी किनारे पर रहती थी, जबकी पश्चिमी छोर मृतकों के लिये निर्धारित था, जिस पर मकबरे, कब्रिस्तान, पिरामिड इत्यादी बने हुए थे. इस प्रकार नील नदी जीवन व मृत्यु के बीच में एक विभाजक रेखा के रुप में काम करती थी. नील नदी मिस्र को अपने दोनों ओर हरीयाली की चादर बनाती हुई दो टुकडों मे विभाजीत करती है. नदी के दोनों ओर की हरी भरी जमीन, देश के क्षेत्रफल का मात्र 4% हिस्सा होने के बाद भी इसे कॄषी प्रधान देश बनाये हुए है. मिस्र का बाकी 96% हिस्सा दुनिया का सबसे बडा रेगीस्तान सहारा में फैला हुआ है, जहां रेत के सिवाय कुछ नही दिखता है. नील नदी मिस्र में 1500 किमी की दुरी तय करती है.


इजिप्शियन म्युजियम काहिरा के साथ ही दुनिया भर के सारे संग्राहलयों में सबसे श्रेष्ठ हैं. अल सुबह मैं ओर मोहम्मद टिकट की लाइन में लग गये, क्योंकि विदेशी सैलानियों की बहुत भीड इसे देखने के लिये आती है. मैने दुनिया भर मे अनेकों म्युजियम देखे है, लेकिन मेरी निगाह मे इजिप्शियन म्युजियम की तुलना दुनिया किसी भी बडे से बडे राजे महाराजा के खजानों से नही की जा सकती है.यह काफी बडा भी है, इसे तसल्ली पुर्वक देखने व समझने के लिये लगभग कम से कम एक दिन चाहिये. संग्राहलय का प्रवेश शुल्क विदेशी सैलानियों के लिये 60 पाउंड है, वहीं स्थानीय अरबी लोगो के लिये मात्र 2 पाउंड. एक इजीप्शीयन पाउंड लगभग 9 भारतीय रुपये के बराबर होता है.


इसे बनाने के विचार एक फ्रेंच इतीहासकार मेरीयट को आया, जो सन 1858 मे मिस्र में आया था. जब उसने देखा कि पुरे देश में बिखरी ऐतिहासिक महत्व की वस्तुओं को पिछली कई सदियों से विदेशी

लुटेरे व संग्रहकर्ता अपने साथ मिस्र से बाहर ले जा रहें है. तो उसनें इस संग्राहलय के निर्माण की शुरुआत की. इसे बनाने में अनेकों वर्ष लगे व वह 8 दिसम्बर 1902 को जाकर पुरा हुआ. तब यह दुनिया का पहला संग्राहलय था जिसका भवन इसी उद्देश्य हेतु विशेष रुप से बनाया गया था. उस वक्त मिस्र पर अंग्रेजों का शासन था. अंग्रेजो की लुट-खसोट के बारे में हम हिन्दुस्तानवासीयों से ज्यादा अच्छी तरह से कौन समझ सकता हैं. हजारों वर्षों से लुटेरों नें इन ऐतीहसिक महत्व की वस्तुओ को सोने चान्दी जैसी धातुओं को प्राप्त करने के लिये गला कर खत्म कर दिया, या फिर उन्हे एन्टीक डीलर्स को बेच दिया गया जो सारी दुनिया में फैले निजी संग्रहकर्ताओं के पास रखी है.

इतीहास में रुची होने के कारण मैने म्युजियम देखने के लिये एक गाईड करना उचीत समझा, जिसका एक घंटे का शुल्क 100 पाउंड था. इस एक घंटे मे पुरे म्युजियम का एक चक्कर लगाकर मोटे तौर पर मिस्री इतिहास व म्युजियम में प्रदर्शित वस्तुओं के बारे में समझा दिया जाता है, फिर बाद में आप अकेले ही तसल्ली से म्युजियम को देख व समझ सकते हैं. मेरा गाईड हेनी काफी अनुभवी होने के साथ ही इतीहास का अच्छा जानकार था. उसने म्युजियम मे प्रवेश करने से पुर्व एक सिगरेट पीने की इच्छा व्यक्त की क्योंकी अंदर धुम्रपान वर्जीत है. फिर वह हमें साथ में लेकर बाहर बगीचे में एकत्रीत उसके गाईड मित्रों के पास ले गया. धुम्रपान करते करते उसने और उसके मित्रों नें मुझे अमिताभ बच्चन की कई फिल्मों के डायलाग सुनाये.


यहीं एक गाईड ने बताया कि अभी कुछ दिन पहले उसने किसी विदेशी टी.वी. चेनल पर खजुराहो के

मंदीर के बारे में एक डाक्युमेंट्री फिल्म देखी थी. फिर उसने पुछा कि इस तरह की कामोत्तेजक मुर्तीया का भगवान इबादात करने की जगह में होना, कितनी अजीब बात है. आपका समाज इसे कैसे सहन कर लेता है. तब तक उनके दस से ज्यादा गाईड मित्र हमारी बातचीत में भाग लेने के लिये एकत्रीत हो चुके था. एक अन्य का कहना था कि विश्व के किसी भी देश या धर्म में ऐसा उदाहरण देखने को नहीं मिलता है, कि पुजाघर में अश्लील मुर्तीया पाई जायें. इसी प्रकार हिन्दुस्तान में आज भी प्रचलीत लिंगपुजा (शिव रुप मे), भी उनकी निगाह में आश्चर्य चकीत कर देने वाली धार्मीक रिती रिवाज है.

चुंकी यही प्रश्न मैने खजुराहो व कोणार्क के मंदीर देखने के दौरान मैनें भी अपने गाईड से किया था. अतः वही जवाब मैनें हेनी व उसके साथियों को बताया. भारत के इतिहास में एक समय ऐसा आया जब अनेकों अनेक नवयुवक युवावस्था में ही दुनिया छोडकर सन्यासित हो रहे थे. इस प्रकार उन्होने अहिंसा को भी अंगिकार कर लिया व शस्त्र उठाना भी छोड दिये. इस कारण तत्कालिन हिन्दु राजाओं व साधुओं ने मन्दिरों का इस प्रकार का निर्माण कराया ताकि नवयुवक भोग विलास की ओर अग्रसर होकर युवावस्था में सन्यास ना ले. हालांकी एक मतानुसार ये मन्दीर तांत्रीक पुजा के भी केन्द्र थे. भारत में मुस्लीम शासकों के हमलों के बाद ही पर्दा प्रथा का प्रचलन बढा अन्यथा उससे पहले कामशास्त्र को उसी प्रकार लिया जाता था, जैसे की पश्चिमी देशों में आज लिया जाता था.
 


एक लम्बी बहस के बाद हमारे गाईड हेनी के साथ हमनें म्युजियम में प्रवेश किया. इसमें एक लाख बीस हजार से ज्यादा प्राचीन वस्तुएं प्रदर्शीत हैं, जो पुरे मिस्र से एकत्रित की गई है. यहां प्रदर्शीत वस्तुएं

क्रानिकल आर्डर में रखी गई हैं, मतलब सबसे पुरानी वस्तुएं, पहले फिर उसके बाद की तारीख की नई वस्तुए बाद में. यहां प्रदर्शित सबसे पुरानी वस्तुओं में है कुछ ज्वेलरी जो तकरीबन दस हजार वर्ष पुरानी हैं. फिर सबसे प्रथम वस्तु है, "नार्मर प्लेट" नामक एक शिलालेख जो आज से 5100 वर्ष पुर्व का है. इस सचित्र शिलालेख का मिस्र के इतिहास में विशेष महत्व है. यह ज्ञात सबसे पुराना एतिहासिक दस्तावेज है, और यहीं से मिस्र के इतिहास की गणना शुरु होती है. इसके पहले मिस्र दो भागों मे विभक्त था, व दोनों हिस्सों में लगातार युद्ध होते रहते थे.इस शिलालेख में उत्तरी मिस्र व दक्षिणी मिस्र के फराओ (मिस्री राजा का खिताब) के मध्य हुए युद्ध की सचित्र एवं लिखीत वर्णन है, जिसमें यह दर्शाया गया है कि इस भयानक युद्ध में दक्षिणी मिस्र का फराओ नारमर विजयी होकर सम्पुर्ण मिस्र का पहला फराओ घोषित हुआ.

इजिप्शियन म्युजियम के सभी कक्षों मे वह पुराना नायाब खजाना जैसे मुर्तियां, हथियार, आभुषण, पेंटींग्स, कपडे, ममीयां, रोजमर्रा के सामान, फर्नीचर, अनेकों इन्सान के अलावा जनवरों की ममीयां इत्यादी प्रदर्षित है, जो मिस्र की 5000 वर्ष पुरानी विरासत का लेखाजोखा समेटे है. हालांकी पुरी दुनिया में चार सभ्याताएं लगभग साथ - साथ शुरु हुई, जैसे जिसमे नील नदी के किनारे मिस्री सभ्यता के अलावा भारत में सिन्धु नदी के किनारे मोहन जोदडो, इराक दजला व फरात नदीयों के किनारे व चीन ने ह्वांग हो नदी के किनारे चीनी संस्कृती. पर समय के थपेडों नें मिस्री सभ्यता को छोडकर बाकी सभी सभ्याताओं के नामों निशान ही मिटा दिये. अतः सारी दुनिया मे मिस्री सभ्यता के मुकाबले में आज किसी अन्य सभ्यता के सबुत सुरक्षीत नहीं बचे हैं.


म्युजियम में मेरी मुलाकात लाहौर से आई एक नाटक कम्पनी के सदस्यों से हुई, जो अपने स्टेज शो के

सिलसिले में मिस्री सरकार के निमन्त्रण पर काहिरा आये थे. अगले दिन पास ही के एक थियेटर में उनका "सलीम - अनारकली" नामक नाटक का मंचन था, उसके लिये उन्होने मुझे व मोहम्मद को बेहद आग्रहपुर्वक निमन्त्रण दिया. उनकी दिली इच्छा थी की मैं उनका नाटक देखने आउं. वैसे भी मिस्र में हिन्दुस्तानी या पाकिस्तानी बहुत कम है, अतः वे चाहते थे कि उनको दाद देने के लिये मेरे जैसा हिन्दी भाषी तो उपस्थित रहे. बहुत दिनों बाद लाहौरवासियों से पंजाबी मिश्रीत हिन्दी में बात करने से मन प्रफुल्लीत हो उठा था.  कितनी अजीब बात है, कि जब हम हिन्दुस्तान में होते हैं तो, हमें आये दिन होने वाली आतंकवादी घटनाओ के कारण हमारा नजरीया पाकिस्तानियों के लिये अलग होता है. किन्तु यही पाकिस्तानी, विदेशी जमीन पर हमें भाई जैसे लगने लगते हैं. हालांकी मेरी भी नाटक देखने जाने की बहुत इच्छा थी पर उस शाम मुझे मोहम्मद के भाई के यहां भोजन का निमन्त्रण था, जिसे टालना मुनासिब नहीं था.

पुनर्जन्म पर प्राचीन मिस्र वासियों का विश्वास था, इसलिये वे मरने के बाद भी शव को सहेज कर रखते थे ताकि जब पुनर्जन्म होगा तब आत्मा को अपने शरीर प्रवेश में आसानी होगी. इसी कारण ममीकरण की तकनिक खोजी गई. इसी की बदौलत आज भी लगभग चार से पांच हजार पुराने शव सही सलामत रखे हैं. हिन्दुस्तान के भी कई संग्राहलयों में मिस्री ममीयां प्रदर्शीत की गयी है. ममी बनाने के लिये प्राचीन काल में लगभग 70 दिन की विधी होती थी. सर्वप्रथम शव को नील नदी के पानी व वाईन से धोने के बाद, शरीर के चार महत्वपुर्ण भाग जैसे लीवर, फेंफडे, पेट व आंतों को निकाल कर नमक से सुखा कर चार अलग अलग डेकोरेटेड जार मे रख दिया जाता था. इस दौरान हृदय को नहीं निकाला जाता था, क्योंकि यह माना जाता था कि इसकी जरुरत दुबारा जीवित होने के लिये होगी. दिमाग को नाक के रास्ते से एक लम्बे हुक द्वारा निकाला जाता था. इसके बाद शव को नमक में डुबा कर सुखा दिया जाता था.


फिर लगभग 40 दिनों में शव पुरी तरह सुखा जाता था तो फिर उसे तेल में भीगी पट्टीयों से शव को लपेट कर ताबुत में रख दिया जाता था. जैसे कि तुतनखामुन की ममी को चार अलग - अलग ताबुतों रखा गया

था जिसमें से एक तो सोने का बना था. फिर बाद में इस ताबुत को मय खजाने के किसी पिरामिड, मकबरे में दफनाया जाता था. समाज के अन्य वर्ग के लोग अपनी हैसीयत के मुताबीक मकबरों की सजावट कराते थे.

काहिरा के इजीप्शियन म्युजियम में प्रथम मंजील पर एक विशेष कक्ष "रायल हाल आफ ममी" है, जिसमें अनेकों महत्वपुर्ण मिस्री फराओ (महाराजा) की ममीयां कांच के विशेष वातानुकुलित बाक्स में रखी है ताकी वे लम्बे समय तक संरक्षीत रह सके. इस कक्ष मे प्रवेश करना एक अद्भुत अनुभव है, ये वही महान फराओ हैं जिन्होने विगत ढाई से पांच हजार वर्षों तक मिस्र पर शासन किया था, व अपनी याद में विशाल पिरामिड, मन्दीर, मुर्तीयों इत्यादी को बनाया जो आज भी सुरक्षीत हैं.  इस कक्ष मे विशेष भीड नहीं रहती है, क्योंकि इसमें प्रवेश हेतु अलग से 100 पाउंड देना होते हैं, या इतने सारे मृत शरीरों को एक साथ देखना शायद हर किसी को पसंद ना आता हो. कक्ष के अंदर मैं तकरीबन एक घंटे तक ना जाने क्यों सहजता से रह गया क्योकि मुझे किसी भी जानवर या इन्सान का शव देखने के बाद जुगुप्सा होती है व मैं अपने आपको असहज महसुस करता हुं.


पिछले दिनों ही मैने हालीवुड की यहुदी धर्म पर आधारित एक फिल्म "10 कमांडेंटस" देखी थी, जिसमें 19 वे राजवंश के फराओ रामसेस II (1279 BC) की भी एक महत्वपुर्ण भुमीका थी, की ममी को प्रत्यक्ष देखना भी एक अद्भुत अनुभव था. उसके बारे गाईड नें बताया कि वह मिस्री इतीहास का एक महान योद्धा था, जिसने कई युद्ध जीते व एशिया व अफ्रिका के कई देशों पर विजत प्राप्त की. कुछ समय पुर्व रामसेस II की ममी को वैज्ञानिक परिक्षण के लिये पेरिस ले जाया गया था तो उसके शव को मिस्री सरकार नें एक पासपोर्ट जारी किया, जिसमें उसे मिस्र का नागरीक बताते हुए उसे पेशे से एक "राजा" बताया. फिर बदले में पेरिस एयरपोर्ट पर उसे फ्रान्स सरकार ने भी वही सैन्य सन्मान दिया जो किसी भी जीवित राष्ट्राध्यक्ष को मिलता है.


गीजा के पिरामिड देखने के लिये मैं बचपन से लालायीत था. हर कोई अपनी पहली विदेश यात्रा पर

स्विट्रजर्लैंड या अमेरिका जाने के बारे में सोचता है तब भी मैं अपनी विदेश यात्रा पर मिस्र जाने के बारे में ही सोचा करता था. यह अलग बात है कि मेरी विदेश यात्राओं मे मिस्र का क्रम बहुत बाद में आया. मिस्र आने से पहले मैने इसके बारे में जितनी किताबें पढी थीं, या हालीवुड की फिल्में जैसे द ममी रिटर्नस, द स्कोर्पियन किंग इत्यादी को देखने के बाद दिमाग में मिस्र की एक अलग ही छवी बनती थी, और विचार आता था कि क्या, गीजा के पिरामिड व मन्दिर भी ऐसे ही दिखते होंगे.

मुझे गीजा के पिरामिड दिखाने के लिये मोहम्मद का छोटा भाई इस्माईल व उसका एक दोस्त अली आया, जो दोनो ही फार्मेसी के स्टुडेंट थे. उन दोनों की इतिहास या पुरानी वस्तुओं में कोई रुची नहीं थी. चुंकि उस दिन मोहम्मद को कुछ काम था तो उसने मेरा साथ देने के लिये उन्हें भेजा. जैसा की हिन्दुस्तान में भी होता है विदेशियों को किसी भी पर्यटक स्थल में अंदर जाने के लिये अधिक शुल्क चुकाना होता है, ठीक उसी प्रकार हमें गीजा प्रांगण का प्रवेश शुल्क 60 पाउंड, मंकारे के पिरामिड मे अंदर जाने हेतु का 30 पाउंड, खुफु के पिरामिड  में अंदर जाने हेतु 100 पाउंड, सोलर बोट म्युजियम में जाने के 40 पाउंड देने पडे. इसके अलावा कई जगह चौकीदारों को भी बख्शीश देने पडी क्योंकी वे गाईड की भी भुमिका निभा लेते हैं.


चुंकी स्थानीय अरबी लोगों को नाममात्र का प्रवेश शुल्क देना होता है, अतः इस्माईल नें मुझसे प्रवेश शुल्क बचाने के लिये प्रस्ताव रखा कि मैं उनके साथ चुप-चाप चलु, तो वे मेरा भी टिकट लोकल अरबी लोगों की कीमत पर ही ले लेंगे. किन्तु मुझे पता था कि मुझे अरबी नहीं आती है और, यदी किसी भी कारणवश मैं पकडा गया तो हिन्दुस्तानियों की इतनी अच्छी छवी को मैं चंद रुपयों की खातिर खराब नहीं होने दे सकता था.


मिस्री फराओ नें स्वयं को यादगार बनाने के लिये अपने मकबरों के रुप में पिरामिडों का निर्माण किया. ठीक उसी प्रकार जैसे शाहजहां नें ताजमहल बनाया. आज तक कुल 98 पिरामिड खोजे गये हैं. जिसमें

से सबसे बडे व  महत्वपुर्ण हैं गीजा के पिरामिड. यहां कुल 9 पिरामिड खडे है, जिनमें से मात्र तीन ही बहुत विशाल हैं. इन पिरामिडों के एक ओर नील नदी बहती थी ओर दुसरी ओर दुनिया का सबसे बडा रेगीस्तान सहारा शुरु होता था. प्राचीन मिस्र में पिरामिड को सुर्य की किरणों की तरह प्रदर्शित किया गया है, ठीक उसी प्रकार जैसे सुर्य से निकलकर किरणें पॄथ्वी पर फैल जाती हैं. मिस्री फराओ को विश्वास था कि उनकी मृत्यु के बाद एक दिन सुर्य देवता रा अपनी किरणों से उन्हें दुबारा जीवन प्रदान देंगें. इसीलिये वे इन पिरामिडों में अपने साथ जीवनुपयोगी वस्तुओं, खाने - पीने का सामान, आभुषण, युद्ध सामग्री के साथ नौकर - चाकरों व जानवरों को भी साथ में दफन कर लेते थे. ताकी दुबारा जी उठने पर उनका सारा पसंदीदा सामान उन्हे उनके पास ही रखा मिल जाये.

इस तीन पिरामिडों मे सबसे बडा है चिओप्स (खुफु) का पिरामिड जो दुनिया के सात महान आश्चर्यों मे गिना जाता है, जो आज भी 4600 वर्षों बाद सीना तानकर खडा है. हेरोडोट्स के अनुसार इसे बनानें मे दो लाख मजदुरों ने बीस साल तक काम किया था. इसमें 22 लाख लाईम स्टोन के पत्थर लगे हैं जिसमें से प्रत्येक ढाई टन वजनी है. इस पिरामिड की चौडाई चारों दिशाओं में 223 मीटर या 731 फीट (आज 220 मीटर), व उंचाई 146 मीटर या 479 फीट (आज 137 मीटर) है. इसी
पिरामिड के नजदीक ही एक छोटे से म्युजियम में एक 43 मीटर लम्बी विशाल लकडी की नाव "सोलर बोट" भी रखी है, जो विश्वास किया जाता है कि फराहो को दुबारा जीवनदान मिलने के बाद उस पर लौकिक दुनिया से इस दुनिया में आने के लिये काम आयेगी. मुझे इस सबसे बडे पिरामिड के अंदर जाने का मौका मिला. इसके सबसे अंदरी भाग जहां चिओप्स की ममी को रखा गया था, तक जाने में पिरामिड की आंतरीक संरचना की पुरी जानकारी मिल जाती है. हालांकी अंदर बेहद गर्मी होती है, व ताजी हवा व प्रकाश की भी समस्या रहती है.


उस जमाने में जब पहिये का आविष्कार नहीं हुआ था, तब इतने विशाल पिरामिड का निर्माण करना

अपने आप मे एक महान आश्चर्य है. मेरा मानना है कि इन विशाल भवनों का निर्माण, चित्रकारी, व मुर्तीयों का निर्माण किसी भी सभ्यता के लिये अपने शैशवकाल में सम्भव नहीं है. निश्चीत रुप से वह उससे बहुत पुरानी रही होगी. शायद इन विशाल पिरामिडों के निर्माण से भी दो - ढाई हजार साल पुरानी यानी आज से लगभग 7,500 वर्ष पुरानी. तब मैनें इसकी तुलना अपनी प्राचीन वैदीक सभ्यता से करी, कि क्या वह मिस्री सभ्यता से भी पुरानी होगी. तब मेरे मन ने कहा, शायद नहीं. क्योंकि जब हमारी वैदीक सभ्यता लगभग पांच हजार पहले अपनी शैशवास्था में थी, तब तक मिस्री सभ्यता गीजा के पिरामिड बनाकर युवावस्था मे प्रवेश कर चुकी थी.

इसके नजदीक स्थित है खेफ्रेन (खाफ्रे) का पिरामिड जो लगभग 140 मीटर उंचा व 200 मीटर चौडा है. इनमें से मंकारे का पिरामिड सबसे छोटा है, जो मात्र 66 मीटर उंचा व 120 मीटर चौडा है. इन सबके पास ही खडी है, स्फिंक्स नामक मुर्ती जो 57 मीटर लम्बी व 24 मीटर उंची है. इसका मुंह शेर का व धड इंसान का है, जो फराहो की बुद्धिमानी व ताकत का प्रतीक है.

हालांकि बाद में पिरामिड का निर्माण बंद कर रेगिस्तान वेली आग किंग्स मे गुप्त जगहों पर फराओ के शव दफनाया जाना शुरु हो गया, क्योंकि खजाने के लालच में कारण पिरामिडों को लुटा जाने लगा था. तुतमखामुन का खजाना किसी पिरामिड से नहीं निकला था. इसी प्रकार रामसेस द्वितीय के ताबुत के लुटेरों को चकमा देने के लिये तीन बार विभिन्न जगहों पर दफनाया गया. पुरातत्ववेत्ताओं का मानना है कि आज भी सहारा रेगिस्तान मे नील नदी के पश्चिमी हिस्से में अनेको फराओ की ममीयों मय खजाने के दफन है, जिन्हे खोजा जाना बाकी है. 

शाम को जब हम लौट रहे थे तब नजदीक मार्केट पहुंचने के बाद इस्माईल बोला कि घोडे या उंट से पिरामिड का चक्कर लगाना एक यादगार अनुभव होगा. तब हमने वहीं से तीन घोडे 100 पाउंड प्रत्येक

के मान से किराये पर लिये. यहां से पिरामिड लगभग 2 किलोमीटर दुर होंगे, पर घोडे वाला हमें घुमा फिराकर संकरी गलियों से बहुत दुर ले गया. जहां पिरामिड के बहुत पिछे से लहराते हुए विशाल सहारा रेगिस्तान के पास लगी कांटेदार लोहे की बागड के पास एक सरकारी चौकीदार खडा था जो 10 पाउंड की रिश्वत लेकर अनाधिकृत तरिके से गीजा प्रांगण में प्रवेश दे रहा था. जैसे ही हमने अंदर प्रवेश किया घोडा वाला बोला, अब आप स्वयं घुम कर आयें. चुंकी घोडे बहुत सधे हुए थे, व पुरा इलाका उनका जाना पहचाना था तो उन्होने पिरामिड की ओर दौड लगा दी. हालांकी मैने घुडसवारी की है, पर उन अरबी घोडों की रफ्तार देखकर समझ में आया कि क्योंकर अरबी घोडों को घोडों की दुनिया में इतनी इज्जत मिलती है. शाम के वक्त डुबते सुरज में पिरामिड को देखना एक यादगार अनुभव था, जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता है. यहां शाम को ध्वनी एवं प्रकाश का भी प्रोग्राम होता है, पर समय की कमी के कारण नहीं देख पाये.

हिन्दुस्तानियों के लिये यह बडे दुख की बात है कि, हमें तो यह भी नहीं पता है कि सिन्धु नदी के किनारे मोहन जोदडों को बसानें व मिटाने वाले दोनों कौन थे. जबकी मिस्र के पास पिछले पांच हजार वर्षो के इतिहास का सारा दस्तावेज मय सबुत के उपलब्ध है. हो सकता है कि उसी समय गंगा जमुना के किनारे विकसीत हमारी रामायण व महाभारत कालिन सभ्यता भी भी इतनी महान रही होगी. राम भगवान व कृष्ण के पास भी इसी प्रकार बडे महल रहे होंगे.  पता नहीं वह रामानंद सागर की रामायण की तरह भव्य रहे होंगे या फिर श्याम बेनेगल के जवाहर लाल नेहरु की किताब "भारत एक खोज" पर आधारित टी.वी. सिरीयल के पात्रों की तरह सादगी वाले रहे होंगे. पर आज हमारे पास सबुत के तौर पर  सिर्फ रामायण व महाभारत ग्रन्थ ही हैं.

मै जब तक मिस्र में रहा, हर क्षण इसकी तुलना अपने महान भारत देश से ही करता रहा. आज हमारे

पास ज्ञात सबसे पुरानी ऐतिहासिक महत्व की सामग्री सम्राट अशोक द्वारा बनाये शिलालेख व बौद्ध स्तुप है. क्योंकि हमारे पास इतिहास की जानकारी तथ्यपरक जानकारी महात्मा बुद्ध व महावीर के समय से ही है. इसके पहले घटीत महाभारत व रामायण की तिथियों के बारे मे हम सिर्फ कयास ही लगाते हैं. मिस्री सभ्यता के सबुत आज भी पांच हजार वर्ष बाद भी हमारे सामने इसलिये खडे हैं कि सहारा के मरुस्थल की शुष्क व गर्म जलवायु नें इन महान भवनों, मुर्तियों की सुरक्षा करी. जबकी भारत की नमी वाली जलवायु नें हमारे भवनों को मिटा दिया. व हमारे पास दुनिया को बताने के लिये कोई सबुत ही नहीं बचा कि हमारी संस्कृती भी इतनी ही महान थी व वे भी इतने ही बडे भवन बनाने की वास्तु कला में पारंगत थी. 

आज हिन्दुस्तान में सही सलामत बचे अधिकांश ऐतिहासिक भवन किले, महल, व ताजमहल जैसे मकबरे मुगलों व अंग्रेजों के जमाने के ही बने हुए हैं, जो अधिकतम 500 - 600 वर्ष पुराने हैं. वहीं मिस्र में इन 5000 साल पुराने भवनों को देखकर ऐसा लगता है कि दोनों की तुलना की ही नहीं जा सकती है.

फराओ - ज्ञात मिस्री इतीहास 2700 वर्षों मे अनेकों दिग्गज फराहों ने शासन किया किन्तु आज सबसे प्रसिद्ध तुतनखामुन (1341 BC) है, जिसके मकबरे को हारवर्ड कार्टर ने 1922 में वेली आफ किंग्स मे खोजा था. इसके खोज के साथ शकुन - अपशकुन की अनेकों कहानियां जुडी हुई हैं, जिसमे यह प्रचारित किया जाता है कि इसके मकबरे को खोलने वाले सभी लोगों की मृत्यु शाप के कारण हो गयी थी. तुतनखामुन मिस्री इतिहास का एक अल्पज्ञात फराओ रहा है जिसकी मृत्यु मात्र 18 साल में ही हो गयी थी. इसकी प्रसिद्धी का कारण इसके मकबरे से निकला साबुत खजाना रहा है . इसके पहले के फराहो के खजानो को पिछली कई सदियों से लुटा जाता रहा है. किन्तु सिर्फ तुतनखामुन का खजाना ही लुटेरों की निगाह से साबुत बचा रहा है, जिसे आज भी सारी दुनिया के म्युजियम में बारी बारी से प्रदर्षीत किया जाता है.

तुतनखामुन का खजाने की 3500 से अधिक वस्तुओ को काहिरा के इजिप्शियन म्युजियम के विशेष कक्ष मे प्रदर्षित किया गया है. इसमें प्रदर्षित स्वर्ण ज्वेलरी, फर्निचर, रथ, हथियार व अन्य सामान

निसन्देह बेशकिमती हैं. इसमें से एक खुबसुरत नेकलेस में लगी सोने की चेन देखकर में दंग रह गया क्योंकि, कुछ समय पहले मुझे एक आभुषण विक्रेता ने इस चेन को यह कह कर बेचा था कि यह लेटेस्ट डिजाईन है, लेकिन काहिरा मे तुतनखमुन के खजाने मे उसे देखने के बाद समझ आया कि वह डिजाईन कम से कम 3300 साल पुरानी है.

मिस्री फराओ मे तुतनखमुन के अलावा अधिक प्रसिद्ध नारमर (3050 BC), जोसेर (2654 BC), स्नोफ्रु (2600 BC), खुफु (2571 BC), खेफ्रेन (2540 BC), मंकारे (2510 BC), अहमोस I (1550 BC), टुथमोस (1479), हटशेपसुत (1473, महिला), आमेनहोटेप III (1353 BC), रामसेस II (1279 BC), अखेनाटेन (1136 BC), क्लियोपेट्रा VII (51 BC, महिला)  रहे हैं. प्राचीन काल में कई फराओ द्वारा अपनी सगी बहन या बेटी से भी विवाह करने की जानकारी मिलती है.

मिस्री भोजन - हम हिन्दुस्तानियों की तरह गेहुं की रोटी व प्याज व लहसुन युक्त मसालेदार हरी सब्जीयां ही मिस्री भोजन का मुख्य भाग है. इसीलिये मिस्री बाजार में सभी तरह की सब्जीयों, फ्रुट व मसालों से सजे रहते हैं. यहां तक की आम व अमरुद जैसे ट्रापीकल व मेडीटेरियन फ्रुट भी बाजार में आसानी से मिल जाते हैं. ज्यादातर रेस्टोरेंट शाम के समय सडक पर टेबल - कुर्सीया लगा देते है जिन पर देर रात तक हुक्का (अरबी मे शीशा) गुडगुडाने वालों का मजमा लगा रहता है.

एल - फुल - एक महत्वपुर्ण सुबह का नाश्ता है जो हरी फलीयों की सब्जी, रोटी व सलाद से बना होता है, फलाफेल - यह आजकल दुनिया भर में आसानी से मिलने वाली अरबी फास्ट फुड व्यंजन है जो हरी

सब्जीओं या गोश्त, सलाद, सीसम सास, जिसे रोटी में लपेट कर बीडा बना कर परोसा जाता है. यह लगभग मुम्बई मे मिलने वाले फ्रेन्की की तरह ही होता है, कोशारी, मोलुखैया (सब्जीयों का सुप), कबाब, कोफ्ता, शावर्मा, फाटीर (मिस्री पीज्जा). मिठाईयों में बासबुसा, कोनाफा, बकलावा, महालाबिया, उम - अली प्रसिद्ध है. पेय पदार्थों में चाय, काफी,  कारकाडे, फखफखीना काकटेल फ्रुट ज्युस. बाजारों मे फेरी लगाकर पारम्परीक वेश-भुषा मे सजे हुए इमली का शर्बत बेचने वाले अपनी ओर आकर्षीत कर ही लेते हैं.

अधिकांश जनता मांसाहारी है, अतः मेरे जैसे शुद्ध शाकाहारी आदमी को थोडी दिक्कत उठानी पड सकती है. पर मुझे मोहम्मद के कारण कोई दिक्कत नहीं गयी. बाजार में शुद्ध शाकाहारी फास्ट फुड "कोशारी" व एल - फुल आसानी से मिल जाता है. मिस्र मे ऐसे फास्ट फुड रेस्टोरेंट बहुतायत मे हैं जो सिर्फ कोशारी ही बेचते हैं. कोशारी एक मिर्च - मसाले वाला स्वादिष्ट व्यन्जन है जो चावल, पास्ता, लेन्टील, प्याज, टमाटर व केचप के मिश्रण से बनाया जाता है, जो मात्र तीन से पांच पाउंड में ही उपलब्ध है. इसी प्रकार फ्रुट जुस भी आसानी से मिलता है. वहां मैने अफ्रिकन आम का शेक भी बहुत पिया.

खान अल खलिली बाजार सन 1382 में अमिर अल खलिली द्वारा बनाया गया था. यह संकरी गलियों मे लगने वाला काहिरा का सबसे पुराना बाजार है जो सदियों बाद भी वैसा ही खडा है जैसा कि वह अपने पुराने समय में था. यहां सैलानियों के लिये वह सब कुछ है जिसे वह अपने खरीदकर अपने घर ले जाने को लालायित रहते हैं. काहिरा आने वाला हर व्यक्ती खान अल खलिली बाजार जरुर जाता है. यहां कालीन, इत्र, सोना चान्दी के आभुषण, कपडे, बर्तन, मिर्च - मसाले, खाने - पीने का सामान, हस्तकरघा इत्यादी बिकते है. यहां मोल-भाव होता है. पहले यहां मिस्र या अरब देशों में उत्पादित सामान बिकता था किन्तु अब इस मार्केट में चीन व भारतीय सामान बहुतायत मे बिक रहा है, जिसे सैलानी इजीप्शीयन मानकर ही अपने देश ले जाता है.

मैने भी मैनें अपनी मिस्र यात्रा की याद के रुप में मोहम्मद की सलाह से यहां से पेपरस पेंटींग्स खरिदी

जो पिरामिड या मन्दिरों में शिलालेख पर उत्कीर्ण प्राचीन मिस्री भाषा व चित्रों की नकल ही होती है. आज भी यह पेपरस पेपर स्थानीय बांसनुमा पेपरस प्लांट से चार हजार साल पुरानी तकनीक से ही बनाया जा रहा है. इसके अलावा कुछ पिरामिड, स्फिंक्स, प्राचीन फराओ, देवी - देवताओं की पत्थर की प्रतीकृतियों के अलावा इजीप्शीयन काटन की टी-शर्टस, स्थानीय सिक्कों के सेट, डाक टिकट भी खरीदे.

मेहमानबाजी में मोहम्मद का जवाब नही था. उसके कारण मेरी मिस्र की यात्रा का खर्च नगण्य ही रहा, किन्तु फिर भी मैनें पाया कि काहिरा हमारे मुम्बई से हर मामले में सस्ता है जैसे कि खाना - पीना, होटल, घुमना. इसलिये मैने सोचा कि निकट भविष्य में सम्पुर्ण मिस्र भ्रमण करने हेतु दोबारा आउंगा, व अपनी अगली यात्रा नील नदी पर चलने वाले जहाज से पुरी करुंगा. ये जहाज दुनिया भर में समन्दर पर चलने वाले स्टार क्रुज जैसे ही होते है, जिसमें इनमें सोने व खाने की पुरी व्यवस्था होती है.  यह यात्रा साधरणतया सात से दस दिन में मिस्र के सभी महत्वपुर्ण नगरों व ऐतिहासिक स्थलों से गुजरती हुई पुरी होती है. इस क्रुज के दौरान आने वाले शहर व अन्य ऐतिहासिक स्थल हैं - काहिरा, अलेक्जेन्ड्रिया, मेंफिस, सक्कारा, दहशुर, मैदुम, बेनी हसन, अल-बेर्शा, टुना अल-गेबेल, टेल अल - अमार्ना, अबयदोस, लक्सर, असवान डेम, अबु सिम्बेल हैं,  जो सभी नील नदी के किनारे ही बसे हुए है.

जब मैं लौट रहा था, तो काहिरा एयरपोर्ट पर मुझे विदा करने के लिये मोहम्मद आया था. उस समय अलेक्जेन्ड्रीया वाले मुबारिक की ही तरह मेरे दिल के उदगार, शब्दों के रुप मे निकले और मैने उससे कहा, "मै भी खुदा से दुआ करुंगा कि यदि किसी कारणवश मेरा अगला जन्म में हिन्दुस्तान मैं नहीं हो पाये तो, फिर मुझे सिर्फ मिस्र में ही पैदा करना".

विनोद जैन
ई-मेल - vinodthetraveller@gmail.com


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दैनिक भास्कर की पत्रिका "अहा ! जिंदगी" के वार्षिकांक में प्रकाशित मेरा लेख - "मिस्र - टाईम मशीन द्वारा पांच हजार वर्ष पुरानी दुनिया में यात्रा"




 


 


 









Vinod The Traveler

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