“क्या पेरिस
की सडके
कांच से
बनी है
?”. मेरी पहली
युरोप यात्रा
से लौटने
पर मेरे
ताउजी
नें सबसे
पहला प्रश्न
यही किया. शायद
किसी जमाने
में हिन्दुस्तान
के मुकाबले
में पेरिस
की सडकें,
शीशे की
तरह चिकनी
व साफ
सुथरी होने
के कारण
यह मुहावरा
चल निकला
होगा, वरना
उनकी सडके
तो हमारे
जैसी ही
हैं. यह
तो वैसी
ही बात
हुई, जैसे
कभी लालु
यादव नें
कहा था
कि मैं
बिहार की
सडकें हेमा
मालिनी के गाल
की तरह
बना दुंगा.
पेरिस
नाम सुनते
ही आपके
दिमाग में
आईफेल टावर
की छवी
उभरी होगी.
बिलकुल सही, पिछले
सवा सौ
वर्षों में, पेरिस
व आईफेल
टावर एक
दुसरे के
पर्यायवाची बन चुके
हैं. पेरिस
को “सिटी
आफ लाईट”
के नाम
से भी
जाना जाता
है क्योंकि
सन 1820 में
यह युरोप
का पहला
शहर था
जहां सड्कों
पर शाम
को गैस
लैम्प जलाये
गये थे.
आज भी रात भर पेरिस की सडके, महल, चौराहे, दुकाने, नाईट क्लब, बार इत्यादी रोशनी से जगमगाते रहते हैं.
ईसा
से तीन
शताब्दी पुर्व सेल्टीक
जाती के
लोगों नें
जिन्हें पारिसी कहा
जाता था,
नें इस
शहर को
बसाया था.
इसलिये इसे पेरिस
नाम दिया
गया. रोमन
सम्राट जुलियस सीजर
के समय
इन सेल्टीक
योद्धाओं को “गाल”
भी कहा
जाता था,
और इस
साहसिक जाति को
हम प्रसिद्ध
फ्रेंच कामिक्स के
नायक एस्ट्रीक्स
व ओबेलिस्क
के कारण
पहचानते हैं.
पेरिस
बारहवीं शताब्दी तक
पश्चिमी जगत का
सबसे बडा
आबादी वाला
शहर व
व्यापार का केन्द्र
बन चुका
था. इस
दौरान युनिवर्सीटी
आफ पेरिस,
सम्पुर्ण युरोप के
शिक्षा जगत में
अग्रणी स्थान प्राप्त
कर चुका
था. अठारहवी
शताब्दी की प्रसिद्ध
फ्रांसिसी क्रांती होने
तक पेरिस
व्यापार, फैशन, कला,
वास्तुकला, धन, विज्ञान,
धर्म के
क्षेत्र में दुनिया
में नाम
कमा चुका
था, जो
आज तक
कायम है. आज
दुनिया की फैशन
राजधानी कहलाने वाले
मेट्रोपोलिटन पेरिस की
आबादी लगभग
1.20 करोड के
आसपास है,
जबकी ऐतिहासिक
पेरिस जिसे
“सीटी आफ
पेरिस” भी
कहा जाता
है की
आबादी, लभभग
22 लाख ही
है.
मेरी
पहली पेरिस
यात्रा एक चलचित्र
की तरह
मेरे मन
मस्तिष्क पर अंकित
है. दिसम्बर
के प्रथम
सप्ताह की एक
ठंडी शाम,
मैं व
मेरा छोटा
भाई संदीप
अपनी युरोप
यात्रा के अंतीम
पढाव पेरिस
जाने के
लिये जर्मनी
की राजधानी
बर्लिन के बस
स्टेंड पहुंचे. तापमान
लगभग शुन्य से कम था, व बर्फबारी हो रही थी.
बस की लम्बाई व उंचाई देखकर मैं अचम्भीत रह गया, हमारे यहां की लकजरी बसों से भी दुगुनी लम्बी होगी. उसी में शौचालय, एक छोटा सा किचन, नाश्ता या भोजन सर्व करने के लिये एक लडकी, जिसे बस होस्टेस कहना उचीत होगा. क्योंकि अंदर से वह बस एक छोटे विमान जैसी ही प्रतीत हो रही थी.
बर्लिन से पेरिस की दुरी लगभग 1000 किलोमीटर
है.
अतः
मुझे
यह
यात्रा
बस
से
करना
उचित
नहीं
लग
रहा
था.
कारण
मेरे
अपने
हिन्दुस्तान
में
बस
यात्रा
के
अनुभव,
हमारे
यहां
बसों
में
डीजल
की
बदबु
व
सडकों
के
गड्ढों
के
कारण
मेरा
जी
घबराने
लगता
था.
किन्तु उस दिन बर्लिन से पेरिस तक बस का किराया ट्रेन या विमान के मुकाबले कम होने से सडक मार्ग से जाना ही उचित लगा. हालांकी अगर यात्रा की तारिख पहले से तय हो, तो ट्रेन या हवाई जहाज भी सस्ते ही पढते हैं. पर पहली युरोप यात्रा होनें से मुझे इन बातों का ज्ञान कम ही था.
शाम को आठ बजे स्टार्ट करने के बाद ड्रायवर नें बस को सिर्फ एक बार हाईवे पर ब्रुसेल्स
के
नजदीक
एक
पेट्रोल
पंप
पर
रोका,
जहां
एक
छोटा
सा
डिपार्ट्मेंटल
स्टोर्स
व
रेस्टोरेंट
भी
था.
फिर
सुबह
सात
बजे
के
आसपास
पेरिस
महानगर्
की
शुरुआत
हो
गयी,
पर
सुबह
के
ट्राफिक
के
कारण
डाउन
टाउन
तक
पहुंचने
में
तकरीबन
दो
घंटे
लग
गये.
इन दो घंटे तक मैं पेरिस की सडकों, मकानों व दुकानों को बिना पलक झपकाये ही देखता रहा. ऐसे द्रश्यों
को
मैनें
सिर्फ
फोटो
या
फिल्मों
में
ही
देखा
था,
साक्षात
देखकर
मन
खुशी
से
प्रफुल्लीत
हो
उठा.
हमारी
बस
उस
टनल
से
भी
गुजरी
जहां
इन्गलैंड
की
प्रिंसेस
डायना
की
दुर्घटना
में
मृत्यु
हुई
थी.
इसके
बाद
वह
फुटबाल
स्टेडीयम
भी
दिखा
जिसमें
वर्ल्ड
कप
फुटबाल
के
मेच
होते
हैं.
अंत में बस नें हमें शहर के एक प्रमुख रेल्वे स्टेशन गारे दु लिस्ट के बाहर उतार दिया. इसी के बगल में यहां का एक और प्रमुख रेल्वे स्टेशन गारे दु नोर्द भी है. इस इलाके को यात्रियों
के
लिहाज
से
शहर
का
सेंटर
माना
जा
सकता
है,
क्योंकि
यहां
आवागमन
के
सभी
साघन
उपलब्ध
हैं.
व
देखने
लायक
अधिकांश
स्थल
भी
नजदीक
ही
हैं.
इन
दोनों
रेल्वे
स्टेशन
के
अलावा
पेरिस
में
कुल
7 रेल्वे
स्टेशन
हैं,
जहां
से
युरोप
के
अनेक
देशों
तक
जाने
वाली
लम्बी
दुरी
की
ट्रैन
शुरु
होती
हैं.
इस क्षेत्र में बहुत सारी होटलें हैं, एक ठीक ठाक सी दिखने वाली इकानामी होटल में हम रुक गये. दो बिस्तरों
वाले
कमरे
का
एक
दिन
का
किराया
40 युरो
(3,000 रुपये).
यात्रीयों
के
ठहरने
के
लिये
सिर्फ
पेरिस
की
होटलों
में 75,000 से अधिक कमरे हैं. जिनका किराया 20 युरो (1500 रुपये) प्रतीदिन
से
लेकर
शुरु
होता
है.
यहां
55 फाईव
स्टार
होटल
हैं.
पुरे
फ्रांस
में
आने
वाले
सैलानियों
की
संख्या
8.50 करोड
प्रती
वर्ष
है,
जो
दुनिया
के
सर्वाधिक
हैं,
जिसके
लिये
यहां
कि
टुरिस्म
इंडस्ट्री
बिलकुल
तैयार
है,
जबकी
हिन्दुस्तान
में
अंतर्राष्ट्रीय
पर्यटकों
के
लिहाज
से
मुलभुत
सुविधाएं
भी
नहीं
हैं.
थोडी देर बाद तैयार होकर होटल से बाहर निकलकर देखा तो ऐसा लगा कि जैसे हम हिन्दुस्तान
में
ही
पहुंच
गये
हों.
हिन्दुस्तानी,
पाकिस्तानी
व
बांग्लादेशीयों
द्वारा
संचालित
अनेकों
दुकाने
व
रेस्टोरेंट
दिखालाई
दी.
जिनके
नाम
ताजमहल,
मुम्बई,
बालीवुड,
बुद्धा,
शाहजहां,
इत्यादी
थे.
इस
इलाके
में
हिन्दी-पंजाबी बोलने वाले ढेरों की तादाद में मिल जायेंगे।
भुख
लग
आई
थी,
एक
साफ
सुथरे
रेस्टोरेंट
में
घुस
गये.
अनेकों
दिनों
बाद
हिन्दी
भाषा
में
किसी
नें
स्वागत
किया.
खाना स्वादिष्ट
था.
अंत
में
मैने
रेस्टोरेंट
के
मालिक
से
पुछा,
कि
कहां
के
रहने
वाले
हो
उसनें
बतलाया
कि
गुजरात
से.
यह
जानकर
मैनें
अपनी
काम
चलाऊ
गुजराती
भाषा
के
ज्ञान
का
रौब
डालना
चाहा.
तो
वह
हंसा
और
बोला
कि
मैं
हिन्दुस्तान
के
गुजरात
प्रांत
से
नहीं
वरन
पाकिस्तान
के
गुजरात
शहर
से
हुं.
तब
पता
चला
कि
पाकिस्तान
के
पंजाब
प्रांत
में
एक
गुजरात
नाम
का
आठ
लाख
की
आबादी
वाला
शहर
भी
है.
फिर तो उससे बहुत अच्छी दोस्ती हो गयी, और हम अपने पेरिस प्रवास के दौरान अकसर उसी के यहां खाना खाते. उसके रेस्टोरेंट
के
साईन
बोर्ड
पर
लिखा
था
कि
यहा
उत्तम
क्वालिटी
का
हिन्दुस्तानी
खाना
मिलता
है.
तब
मैनें
उत्सुकतावश
उससे
पुछा
कि
आपनें
पाकिस्तानी
होने
के
बाद
भी
अपनी
होटल
को
हिन्दुस्तानी
नाम
क्यों
दिया.
पहले तो अहमद मुस्काराया,
फिर
संजिदा
होकर
बोला,
कि
अगर
मैनें
अपने
रेस्टॉरेंट
का
नाम
अगर
कराची
या
लाहौर
पर
रखा
होता
तो
क्या
आप
आते.
मैने
भी
स्पष्ट
कहा
कि
अगर
मेरे
पास
कोई
और
चाईस
होती
तो
शायद
बिलकुल
भी
नही.
तब फिर उसने कहा कि यही हाल अन्य लोगों का भी है. यहां तक की स्थानीय फ्रेंच जनता भी सिर्फ हिन्दुस्तानी
नाम
से
ही
आकर्षित
होते
है.
इसलिये
तमाम
पाकिस्तानी
व
बांग्लादेशी
भी
अपने
संस्थानों
के
नाम
किसी
भी
हिन्दुस्तानी
वस्तु
या
स्थान
के
नाम
पर्
ही
रखने
की
कोशिश
करते
हैं.
रिपब्लिक आफ फ्रांस की क्षेत्रफल
5.51 लाख
वर्ग
किलोमीटर
है,
व
आबादी
6.66 करोड
है,
जिसमें
से
85% शहरों
में
निवास
करती
है.
युरोप
की
इस
मुख्य
भुमी
के
अलावा,
मार्टीनेक,
गुआडेलप,
फ्रेंच
गुयाना,
मायोट्टे
जैसे
बहुत
छोटे
देशों
11 देशों
पर
आज
भी
फ्रांस
का
शासन
चलता
है,
जो
दुनिया
भर
में
बिखरे
हैं.
जिन्हें
फ्रांस
की
ओवरसीज
कालोनी
भी
कहा
जाता
है.
फ्रांस में आज भी पचास लाख से ज्यादा अरब व अफ्रीकी मुल के लोग बसते हैं, क्योकि कभी दुनिया की 8% जमीन व कुल 26 देशों पर फ्रांस का शासन चलता था. इनमें से अधिकांश अफ्रीका महाद्विप
में
थे.
इसीलिये
आज
भी
अफ्रीका
में
फ्रांस
से
ज्यादा
फ्रेंच
भाषा
बोलने
वाले
लोग
हैं.
फांस
की
88% आबादी
फ्रेंच
भाषा
बोलती
है,
पर
इटली
से
लगे
क्षेत्र
में
करीब
दस
लाख
लोग
इटेलियन
भाषा
बोलते
हैं.
80% जनता
रोमन
केथोलिक
धर्म
का
पालन
करती
है.
भारत में चैन्नई के मात्र 170 किलोमीटर
दुर
स्थित
पांडेचेरी
पर
भी
1769 से
1954 तक
यानी
तकरीबन
दो
सौ वर्षों तक फ्रांसिसी
शासन
रहा
है.
युरोप के पेरिस, लंदन, मेड्रीड, मास्को जैसे शहरों की शानो शौकत का कारण यह भी है कि ब्रिटेन का 58 देशों, फ्रांस का 26 देशों, रशिया का 21 देशो व स्पेन का भी 21 देशों पर शासन रहा है, जहां से वे लुटपाट कर दौलत को अपने देशों में भेजते रहे थे.
वर्तमान मे भी फ्रांस दुनिया के समृद्ध देशों की अग्रणी पंक्ती में शामिल होकर दुनिया की उन पांच बडी ताकतों में शुमार है, जिन्हें संयुक्त राष्ट्र संघ में वीटो पावर मिला है. यह हथियारों
का
सबसे
बडा
निर्यातक
देश
भी
है.
इसके
अलावा
यात्री
विमान
बनाने
वाली
कम्पनी
एयर
बस
जो
अमेरिकन
बोईंग
की
सबसे
बडी
काम्प्टीटिटर
है,
का
उत्पादन
भी
फ्रांस
में
होता
है.
यहां की लक्जरी सामान बनाने वाली चार बडी कम्पनियों
जैसे
चैनल,
कार्टीयर,
हरमीस,
लुई
वीटोन
की
कीमत
ही
30 बिलीयन
युरो
है. फैशन की दुनिया में पेरिस, दुनिया में नम्बर एक पर है, पर यहां बच्चों की ब्युटी कांटेस्ट
गैर कानुनी है, ऐसा करने पर दो साल कैद व तीस हजार युरो (22 लाख रुपये) तक की सजा का प्रावधान
है.
अगले दिन हमने पेरिस भ्रमण के लिये हाप आन हाप आफ बस व सीन नदी के क्रुज के तीन दिन के भ्रमण का टिकट 45 युरो में लिया. पर्यटकों
की
सुविधा
के
लिये
पेरिस
को
चार
सर्कल
या
रुट
में
बांटा
गया,
जिनके
नाम
ग्रीन,
आरेंज,
येलो
व
ब्लु
सर्कल
दिये
गये
हैं.
प्रत्येक रुट को इस तरह से बनाया गया है कि उस मार्ग में आने वाले हर महत्वपुर्ण
स्थान
को
देखा
जा
सके.
साथ
ही
हर
रुट
पर
बसें
एक
या
दो
जगह
पर
आपस
में
क्रास
भी
करती
है
ताकि
पर्यटक
अपने
रुट
को
बदल
सकें.
इस
प्रकार
इन
बसों
से
पेरिस
के
पचास
से
भी
ज्यादा
दर्शनीय
स्थलों
को
देखा
जा
सकता
है.
इन बसों में इयरफोन के माध्यम से हम कामेंट्री
भी
सुन
सकते
हैं,
जिससे
हमें
उस
स्थल
या
रुट
के
बारे
में
जानकारी
मिलती
रहती
है.
यह
कामेंट्री
हिन्दी
को
छोडकर
दुनिया
की
प्रमुख
भाषाओं
में
सुनने
को
मिलती
हैं.
हम बस के अंदर बैठने के बजाय छत पर बैठे, व उस पुरे रुट का एक चक्कर लगाया. हालांकी उपर बहुत ठंडी हवा चल रही थी, और सुरज भी नहीं निकला था. पर पेरिस की भव्यता का नजारा लेने के लिये हमने ठंड भी सहन करने का निर्णय लिया.
पेरिस के मुख्य दर्शनिय स्थल हैं, आईफेल टावर, शेम्प्स डी मार्स, लुव्र म्युजियम,
नोट्रे
डेम,
ओर्स
म्युजियम,
पेरिस
ओपेरा
हाउस,
आर्क
डी
ट्रीम्फ,
शेम्प्स
एली,
ग्रेंड
पेलेस,
ट्रोकाडेरो,
पेलेस
आफ
वर्साइल्स,
पेलेस
डी
ला
कोन्कोर्ड
हैं.
इसके
अलावा
भी
अनेकों
स्थान
हैं,
जो
इन
बसों
के
रुट
में
आते
हैं,
पर
सभी
जगहों
के
नाम
याद
रख
पाना
भी
सम्भव
नहीं
हैं.
हां,
अंग्रेजी
व
फ्रेंच
में
इन
नामों
के
उच्चारण
में
कुछ
भिन्नता
हैं. मुझे तो पुरा पेरिस ही एक म्युजियम की तरह लगा, जिस तरफ नजर दौडाओ कुछ ना कुछ देखने लायक वस्तु दिखेगी.
आईफेल टावर का नाम इसे बनाने वाले सिवील इन्जिनियर गुस्ताव आइफेल के सन्मान में रखा गया हैं. इसका निर्माण फ्रांसिसी क्रांती के 100 साल पुरे होने के उपलक्ष में आयोजित वर्ड फेयर के लिये किया गया था. पर आज यह पेरिस व फ्रांस का पहचान चिन्ह बन चुका है. गुस्ताव आइफेल नें अपना सहयोग न्युयार्क की स्टेच्यु आफ लिबर्टी बनाने में भी दिया था.
सन 1889 में बने इस टावर का शुरुआत में फ्रांस के बुद्धिजिवीयों व कलाकारों ने विरोध किया था. पर आम जनता के पसंद किये जाने पर बाद मे यह फ्रांस तो क्या दुनिया के सबसे प्रसिद्ध दर्शनीय स्थलों में से एक में शामिल हो गया. दस हजार टन लौहे से बना यह तीन मंजीला टावर, 324 मीटर उंचा (1063 फीट) है. इसको बनाने वाले सभी 72 फ्रांसिसी साईंटिस्ट, इन्जिनियर व मेथेमेटीशियनों के नाम इस टावर पर लिखे हुए हैं.
हमनें लाईन में लगकर टिकट लिया. लिफ्ट से टाप फ्लोर का टिकट 17 युरो, सेकंड फ्लोर का 11 युरो है. अगर सीढी चढकर पैदल उपर तक जाना हो तो टिकट सिर्फ 7 युरो ही है. आजकल तो आन लाईन टिकट मिलता है जिससे दर्शकों का काफी समय बच जाता है. हम लिफ्ट से सीधे सेकंड फ्लोर पहुंचे.
इसकी पहली दो मंजीलों पर रेस्टोरेंट व दर्शक दीर्घा है, जहां तक सीढी या लिफ्ट दोनों तरीकों से जाया जा सकता हैं. वहां से चारों दिशाओं में पेरिस को देखना एक अद्वितीय अनुभव है. मीलों दुर तक पेरिस की सडके, सीन नदी, महल, बगीचे दिखलाई दे रहे थे, जो पेरिस की भव्यता का बखान कर रहे थे. एक तो दिसम्बर का महीना व फिर उपर से इतनी उंचाई कि कुछ ही देर में बेहद ठंड लगने लगी, फिर भी हम मैदान में डटे रहे. जब मन भर गया, तो सीढी के रास्ते से नीचे उतरने का मजा लिया. रेस्टोरेंट थोडा महंगा है.
ग्रांऊड फ्लोर पर कई पंजाबी भाषी लडकों नें आईफेल टावर के सोवेनियर बेचने के लिये घेर लिया. मोलभाव होता है, एक लडका नहीं माना तो फिर आईफेल टावर की एक प्रतिक्रुती खरीदी. सौदा बीस युरो से शुरु हुआ जो पांच युरो पर खत्म हुआ.
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, जब पेरिस पर हिटलर की जर्मन सेना का कब्जा हो गया था तो स्थानीय फ्रेंच अधिकारियों नें इसकी लिफ्ट की केबल काट दी ताकी हिटलर उपर नही चढ सके.
यह दुनिया का सबसे अधिक देखे जाने वाला पर्यटक स्थल है, जहां प्रतिवर्ष 7 करोड से ज्यादा दर्शक टिकट खरीदकर इसे देखने आते हैं, जिनमें से 75% विदेशी होते हैं. शाम के समय इसकी खुबसुरती रंग बिरंगी लाईटों के कारण बहुत बढ जाती है. इसकी चमक बरकरार रखने के लिये, हर सात साल में इस पर कलर किया जाता है. टावर, बगीचे व रेस्टोरेंट के रख रखाव लिये लगभग 500 कर्मचारी लगे हुए हैं.
आईफेल टावर से लगा हुआ है, “शेम्प्स द मार्स” जो तकरीबन 60 एकड का एक बेहद खुबसुरत बगीचा है. जो कभी मिलीट्री स्कुल का ग्राउंड होता था, जहां नेपोलियन नें ट्रेनिंग ली थी.
फिर अगली बस से हम, पेरिस की दुसरी सबसे देखने लायक जगह लूव्र म्यूजियम पहुंचे, जो लूव्र पेलेस में स्थित है. सीन नदी के दाहिने किनारे पर बारहवीं शताब्दी में फिलीप द्वितीय नें एक छोटा सा किला बनाया गया था. जिस पर बाद मे कई शासकों नें आगामी कई वर्षों तक एक शाही महल का निर्माण किया. फिर सन 1692 में लुई चौदहवें अपने शाही ठिकाने को यहां से हटाकर वर्साईल्स पेलेस ले गये. पर वे अपना ढेर सारा कीमती सामान यहीं छोड गये, जिसमें कई पेंटींग्स, के अलावा ग्रीस व रोम से लाई गई कलाकृतियां थी.
लगभग एक शताब्दी बाद 1793 में इसे एक संग्रहालय का स्वरुप दे दिया गया. बाद में फ्रांस के आने वाले शासकों में प्रमुख थे नेपोलियन, लुई अठारहवें व चार्ल्स दसवें जिन्होनें इस संग्रहालय के गौरव को बढाने में पुरा सहयोग किया.
लूव्र म्यूजियम के प्रांगण में बना हुआ एक भव्य ग्लास का पिरामिड अपनी ओर सबका ध्यान आकर्षीत कर लेता है. प्रवेश टिकट 15 युरो है. इसी म्यूजियम में लियोनार्डो डी विन्ची की “मोनालिसा” व माईकेल एन्जेलो की “डाईंग स्लेव” आम जनता के देखने के लिये रखी गई है. दुनिया के सबसे बडा व सबसे ज्यादा देखे जाने वाला म्यूजियम है. यहाँ दस लाख से भी ज्यादा दुनिया भर से लाये गये सामानों को प्रदर्शित किया गया है. यहां का इजिप्शियन कलेक्शन मिस्र के बाद सबसे बडा है. जिनमें से अधिकांश कलाकृतियां इजिप्ट पर फ्रांस के शासन के दौरान पेरिस लाई गयी थीं.
यह दुनिया का सबसे ज्यादा देखा जाने वाला म्युजियम भी है, जिसे एक करोड से ज्यादा पर्यटक हर साल देखते हैं. यह बुधवार व शुक्रवार को सुबह 9 बजे से रात 9:45 बजे तक खुला रहता है, जबकी बाकी दिनों में यह शाम 6 बजे ही बंद हो जाता है.

फिर हम पहुंचे नगर के सबसे ऊँचे पाईंट पर मोन्टेमार्ट्रे पहाड़ी पर बना हुआ एक सफेद डोम वाला सुन्दर बेसेलिका, जिसे साक्रे कोयर के नाम से जाना जाता है को देखने गये. उसके बाद हमनें विश्व प्रसिद्ध 1345 में बने 400 फीट ऊँचे, दो टावर वाले “नोट्रेडाम”
कैथोलिक केथेड्रल” को देखा, जो सीन नदी के किनारे
खडा था. इसमें कई विशाल घंटे लए हैं, जिनमें सबसे बडे का वजन
13 टन से अधिक है.
पेरिस का एक और लैंड मार्क “आर्क डी ट्रीम्फ” जो नेपोलियन बोनापार्ट की विजय को यादगार बनाने के लिये बनाया गया था, जो लगभग हमारे दिल्ली में स्थित इण्डिया गेट की तरह है, से हम कई बार गुजरे। इसमें युद्ध का चित्रण करने के अलावा मारे गये सैनिकों के नाम लिखे गये हैं। ठीक इसी जगह से शुरु होती है, पेरिस की सबसे महत्वपूर्ण स्ट्रीट ‘शेम्पस एली’ जिसमे दुनिया के सारे बड़े ब्रांड वाले सामानों से भरे स्टोर, सिनेमा, शापिंग माल, काफी हाउस, रेस्टोरेंट हैं। इसके दोनों ओर उगे हुए हार्स चेस्ट नट के पेड़, इस स्ट्रीट की शान में चार चांद लगा देते हैं।
फ्रांस के इतिहास का नाम आते ही सबसे पहले, नेपोलियन
बोनापार्ट
का
नाम
सामने
आता
है.
वह
एक
महान
सेनापति
था
जिसने
फ्रांसिसी
क्रांती
के
बाद
कमजोर
शासक
को
हटाते
हुए
स्वयं
को
सम्राट
घोषित
किया
व
1804 से
1814 दस
साल
तक
फ्रांस
पर
शासन
किया.
इस
दौरान
उसनें
इटली
सहीत
युरोप
के
कई
देशों
पर
विजय
प्राप्त
की.
यहां
तक
की
उसनें
अफ्रिका
मे
इजिप्ट
पर
भी
शासन
किया.
सन
1915 में
वाटरलु
में
पराजय
के
बाद
अंग्रेजों
नें
उसे
सेंट
हेलेना
द्वीप
पर
6 साल
अक
बन्दी
बनकर
रखा
और
कहते
हैं
कि
उसे
संखिया
(आर्सेनिक)
नामक
विष
देकर
मात्र
51 वर्ष
की
आयु
में
सन
1921 में
मार
डाला.
नेपोलियन
के
सन्मान
मे
फ्रांस
में
किसी
सुअर
का
नाम
नेपोलियन
नहीं
रखा
जा
सकता
है.
पेरिस में टेक्सी बहुत महंगी हैं, क्योंकि यहां ड्रायवर को लायसेंस लेने के लिए करीब 1.50 करोड रुपये (दो लाख युरो) की फीस देना होती है. वैसे भी यहां बस व मेट्रो का सघन जाल बिछा हुआ है, अतः हमें तो टेक्सी की जरुरत ही नहीं हुई.
पुराने पेरिस की तंग गलियों में बहुत ट्रैफिक होता है, वहाँ कार से जाना व पार्किंग की जगह मिलना बहुत मुश्किल है। अतः ऐसी जगहों पर सरकार ने जगह जगह साईकल स्टेण्ड बना रखे है, जहाँ से आप साइकल निःशुल्क ले सकते है, फिर अपना काम होने के बाद शहर के किसी भी सायकल स्टेण्ड पर छोड़ सकते हैं. मेरे मन में यह विचार आया कि कहीं हमारी सरकार भी इसी प्रकार ट्रायल के बतौर आवागमन के लिये फ्री साइकल की व्यवस्था करे तो पता चले कि पहले ही दिन, साइकलें तो साइकलें, साइकल स्टैण्ड के ताम-झाम को भी भाई लोग खोल-खुलाकर अपने घर ले जायें.
फिर एक दिन शाम को सीन नदी पर स्टीमर से यात्रा करते हुए पेरिस दर्शन किये. रात को पेरिस की जगमगाहट को देखते हुए घुमना अच्छा लगा. मुझे शम्मी कपूर की प्रसिद्ध
फिल्म
“एन
एवनिंग
इन
पेरिस”
की
याद
हो
आई.
हालांकि
उसके
बाद
अनेकों
हिन्दी
फिल्मों
की
शुटींग
पेरिस
में
किया
जा
चुका
है.
यदि हम पेरिस की बात करें नाईट लाईफ की बात ना करें तो फिर पेरिस की यात्रा अधूरी है. रात भर पेरिस की सडके, भवन, चौराहे, दुकाने, नाईट क्लब, बार इत्यादी जगमगाती रहते हैं. होटल के मेनेजर नें पेरिस का ‘मौलिन रोग’ या लीडो नामक विश्व प्रसिद्ध केबरे को देखने के लिये कहा, जिसका टिकट 175 युरो (लगभग 14,000 रुपये) का है. . नहीं गये क्योंकि, मैं तो दिन भर घुम फिरकर शाम को जल्दी सोने वाला प्राणी, दुसरे नाईट लाईफ का कोई शौक नहीं. एक यहां के नाईट क्लबों व बार में ठगी होती है, इसलिए सावधानी रखने की जरुरत है, क्योंकि उसमें लोकल पुलिस कि मिलीभगत रहती है.
हमारी होटल से टुरिस्ट बस का स्टाप नजदीक ही था. पुरा पैसा वसुल करने कि नियत से सुबह की पहली बस से निकल जाते व शाम की अंतिम बस से थक कर चुर होकर ही लौटते. इस प्रकार पेरिस में एक सप्ताह कब पुरा हुआ पता ही नहीं चला.
यहां के आर्ट म्युजियम
व
गैलरीयों
में
रखी
कलाकृतिया,
सैकडों
से
लेकर
करोडों
रुपयों
तक
में
बिकती
हैं.
पिछली
कई
शताब्दीयों
से
फ्रांस
के
राजा
महाराजाओ
व
रईसों
नें
कलाकारों
को
राजाश्रय दिया,. इसलिये पेरिस कला की राजधानी कहलाती है, व आज भी दुनिया भर के कलाकारों
को
अपनी
ओर
आकर्षित
करती
है.
फ्रेंच भोजन, वाईन व परफ्युम दुनिया में सबसे बेहतरीन माना जाता है. पर यहां शैम्पेन सिर्फ उसी शराब को कहते हैं जो शैम्पेन नामक इलाके में बनती है, अन्यथा किसी दुसरी जगह बनने पर उसे स्पार्कलींग
वाईन
कहा
जाता
हैं.
वाईन की महत्ता यहां तक है कि, हाल ही में ईरान के राष्ट्रपति
हसन
रुहानी
पेरिस
आये,
जहां
उनके
सन्मान
में
एक
शासकीय
भोज
का
आयोजन
रखा
गया,
जिसके
मेनु
में
वाईन
भी
थी.
मुस्लिम
मान्यता
के
अनुसार
शराब
परोसना
अनुचित
था,
जिसका
ईरानी
प्रतिनिधी
मंडल
नें
विरोध
किया.
तो
फ्रांस
के
राष्ट्रपति
होलान्द
नें
उस
मेनु
से
वाईन
को
हटाने
के
बजाय,
यह
कहकर
सम्पुर्ण
भोज
को
ही
रद्द
कर
दिया
कि,
“फ्रांसिसी
भोजन
वाईन
के
बिना
अधुरा
है”.
चौदहवीं शताब्दी में गुलियम तिरेल नामक एक फ्रांसिसी
शाही
खानसामें
नें
ली
वियान्डेर
नामक
एक
किताब
को
लिखा
जिसमें
उस
समय
प्रचलित
कई
स्वादिष्ट
भोजन
की
रेसिपी
का
संग्रह
था.
वैसे
फांसिसी
भोजन
कला,
ईटेलियन
पाक
कला
से
प्रभावित
है,
पर
सतरहवीं
शाताब्दी
के
बाद
से
चीज
व
वाईन
फ्रांसिसी
पाक
कला
का
एक
प्रमुख
हिस्सा
बन
गया
है.
आधुनिक युग में फ्रांसिसी
भोजन
की
सजावट
का
बहुत
मह्त्व
है.
फ्रांस
के
राष्ट्रीय
भोजन
को
साधारणतया
तीन
भागों
में
विभाजित
किया
जाता
है.
पहले
भाग
को,
इन्ट्री
या
इन्ट्रोडक्टरी
कोर्स
कहा
जाता
है.
जिसमें
प्रचलीत
डीश
हैं,
सुअर
के
मांस
से
बना
“बासील
सालोमन”,
“बीस्क
नामक
सुप
जिसमें
आलु
का
उपयोग
होता
है,
“फोई
ग्रास”
जो
सरसो
व
हए
प्याज
से
बनता
है,
“फ्रेन्च
ओनियन
सुप”
जो
प्याज
से
बनता
है.
या
कोर्क
मोन्जियो”
नामक
सेंड्विच.
फिर नम्बर आता है, प्लाट प्रिंसीपल
यानी
मुख्य
भोजन
का
जिसमें
कई
प्रसिद्ध
डीश
है
जैसे,
“पोटोफो”
जो
मांस
व
गाजर,
प्याज,
शलजम
जैसी
सब्जियों
से
बनता
है.
“स्टीक
फ्राईज”
तले
हुए
आलु,
जिन्हें
हम
फ्रेंच
फ्राईज
के
नाम
से
भी
जानते
है.
“बागेट”
नामक
आटे
से
बनने
वाली
ब्रेड
जो
साधारणतया
दो
– ढाई
इंच
मोटी
व
करीब
दो
फीट
लम्बी
तक
होती
है. इसके अलावा कई तरह के चीज या पनीर
को भी परोसा जाता हैं. .
भोज
के
अंत
में
पेस्ट्री
या
आईसक्रीम
या
डेजर्ट
को
भी
परोसने
का
रिवाज
है.
इसके अलावा, कई तरह की क्षेत्रीय
डीश
भी
प्रचलीत
हैं,
जिनकी
लिस्ट
बहुत
लम्बी
है.
मेरे
जैसे
शाकाहारी
के
लिये
भी
अनेक
डीश
उपलब्ध
हैं.
यहां
कई
वेजीटेरियन
रेस्टोरेंट
भी
हैं,
जिनमें
अनेकों शाकाहारी डिशेज उपलब्ध हैं. इनमें से प्रमुख हैं, बाब्स जुस बार, कीचन, रोज बेकरी, ब्रेड एन्ड रोजेज, इस्ट साईड बर्गर, माय किचन, ला बोन हेर, ग्रीन पीज, सोया के अलावा अनेकों शाकाहारी
रेस्टॉरेंट
हैं
जो
कई
अंतर्राष्ट्रीय
रेसिपी को परोसते
हैं,
व
ये
पुरे
पेरिस
में
बिखरे
हुए
हैं.
इसके
अलावा
“श्रवण
भवन”
जो
दक्षीण
भारत का एक
परिचीत
नाम
भी
यहां
उपस्थित
है.
अब हमारा पेरिस भ्रमण पुरा हो चुका था. हमें युरोप में आये करीब चार सप्ताह हो चुके थे. घर की याद आने लगी थी. सोचा कि अगले एक - दो दिन में हिन्दुस्तान
के
लिये
रवाना
हो
जाना
चाहिये. हमनें अपने लौटने की तारीख तय नहीं की हुई थी, कारण आज से कुछ समय पहले विमानन कम्पनियां
रिटर्न
टिकट
ओपन
डेट
का
दे
देती
थी.
अतः
हिन्दुस्तान
स्थित
अपनी
टिकट
एजेंट
को
ई-मेल किया कि, अब हमें हिन्दुस्तान
लौटना
है,
अगली
फ्लाईट
में
सीट
कन्फर्म
करों.
उसका जवाब आया कि क्रिसमस की छुट्टीयां
शुरु
होने
वाली
हैं,
इसलिये
आगामी
दो
– तीन
सप्ताह
तक
कोई जगह नहीं दिख रही है. आप एयर इण्डिया के आफिस में जाकर मिल लें, शायद वे मदद कर दें.
पेरिस मे किसी का भी पता ढुंढना आसान है, क्योंकि पते के साथ नजदिकी मेट्रो स्टेशन का नाम लिखने का रिवाज है. इसलिये हम तत्काल एयर इण्डिया के आफिस पहुंच गये. वहां उपस्थित हिन्दुस्तानी
महिला
नें
प्रसन्न
होकर
हमारा
स्वागत
किया
तो,
मुझे
लगा
कि
निश्चित
रुप
से
ये
हमारी
मदद
करेंगी.
उन्होनें कम्प्युटर
में
चार्ट
देखने
के
बाद
कहा
कि,
मैं
माफी
चाहती
हुं
पर
अब
अगली
सीट
तकरीबन
एक
माह
बाद
जनवरी
में
ही
खाली
दिख
रही
है.
यह
सुनकर
तो
हम
दोनों
भाइयों
का
दिमाग
ही
चकरा
गया.
फिर
वे
बोली
कि
आपनें
दिसम्बर
के
महिनें
में
क्यों
ओपन
टिकट
लिया,
क्या
आपकी
ट्रैवल
एजेन्ट
नें
आपको
नहीं
समझाया
था.
अब मैं उसे क्या बतलाता कि, वह तो मैनें ही अपनी पहली युरोप यात्रा होने के कारण, जिद करके यह निर्णय लिया था. सोचा था कि जब तक मन लगेगा घुमते रहेंगे, व फिर लौट चलेंगे क्योंकि हमारे पास शेन्गेन वीजा था, जिसके कारण हमें युरोप के 26 देशों में प्रवेश की सुविधा हासिल थी.
फिर उसने काफी पिलाकर सांत्वना
देते
हुए
कहा
कि
आप
चिन्ता
ना
करें,
मैं
कोशिश
करुंगी
कि
जैसे
ही
कोई
सीट
खाली
होती
है,
तो
सबसे
पहले
आपको
ही
जगह
दुंगी.
पर
कब
? इसका
कोई
जवाब
नहीं
था.
जैसे ही हम एयर इण्डिया के आफिस से बाहर निकले तो, जिस पेरिस की खुबसुरती
देखकर
हमारा
मन
प्रफुल्लित
हो
जाते
थे,
अब
उसकी
वही
खुबसुरती
हमें
चुभने
लगी.
वैसे
भी
पिछले
एक
माह
से
हमने
सुरज
देखा
भी
नहीं
था.
कारण
सर्दियों
में
युरोपवासियों
के
नसीब
में
सर्दियों
में
धुप
नहीं
के
बराबर
होती
है,
और
उपर
से
दिन
का
उजाला
सुबह
आठ
बजे
से
शाम
चार
बजे
तक
ही
होता.
वह
भी
बेहद
ठंडा.
व
बारिश
भी
अकसर
होती
रहती
है.
अब
अगर
यह
तापमान
शुन्य
से
कम
हो
जाये
तब
बर्फबारी
होने
पर
ही
मौसम
खुबसुरत
लगता
है.
अब हम निरुद्देश्य
पेरिस
की
सडकों
पर
घुमने
लगे.
फिर
एक
जगह
इन्टरेनेट
केफे
देखकर
नई
दिल्ली
ई-मेल किया कि हम यहां फंस गये है, अब बतलायें क्या करें. हमारी एजेंट आन लाईन थी, उसने बतलाया कि आप घबराये नहीं. विमान छुटने के पहले अंतिम समय में टिकट केंसल होने के चांस होते हैं. अतः मैं आपके लिये कोशिश करती रहुंगी.
अगले दिन सुबह सुबह फिर से एयर इण्डिया के आफिस पहुंच गए, पर वही जवाब. वहां से बाहर निकलने पर समझ में नहीं आया कि अब क्या करे. कहां जाये. फिर वही पैदल पैदल घुमते रहे. शाम को लौटने तक तो हमें पुराने पेरिस की एक एक गली का नक्षा दिमाग में बैठ चुका था.
उसके अगले दिन सुबह हम बस स्टाप पहुंचे, जहां शक्ल सुरत से हिन्दुस्तानी
लगने
वाले
एक
बुजुर्ग
भी
खडे
थे.
हमारी
बातचीत
सुनकर
वे
हिन्दी
में
बोले
कि,
बच्चों
कुछ
परेशान
दिख
रहे
हो.
क्या
मैं
कुछ
मदद
कर
सकता
हुं.
पहले
पहल
तो
मुझे
लगा
कि
हर
किसी
के
सामने
अपना
दुखडा
रोने
से
क्या
मतलब.
पर
वे
जिस
अपनेअपन
से
बोल
रहे
थे,
तो
उन्हें
अपनी
समस्या
बतलाने
में
कोई
हर्ज
नहीं
लगा.
उन्होनें
कहा
कि
अभी
तो
मुझे
काम
पर
जाना
है,
किन्तु
शाम
को
पांच
बजे
मुझसे
इसी
जगह
मिलना,
मैं
तुम्हारी
मदद
करने
की
कोशिश
करुंगा.
हम
उनका
नाम
भी
नहीं
पुछ
पाये
थे.
कि
उनकी
बस
आ
गयी.
वहां से हम एयर इण्डिया के आफिस यह जानते हुए भी गये कि हमें ना सुनने को मिलेगा. फिर वहां से पेरिस की बची खुची गलियों को भी नापने के उद्द्शेय
से
निकल
पडे.
तभी
एक
म्युजियम
के
पास
एक
गली
में
एक
दुकान
पर
हिन्दुस्तानी
चेहरा
दिखलाई
दिया.
उपर
नाम
देखा
तो
दुकान
का
नाम
था,
“द
ला
मोती”.
हमें
वहां
खडे
देखकर
उस
दुकान
के
मालिक
नें
बडे
ही
अपनत्व
से
कहा
कि,
आइये.
सुबह
का
समय
था
कोई
ग्राहक
भी
नहीं
था.
अब
हमें
भी
तो
अपना
समय
व्यतीत
करना
था,
तो
अंदर
जाने
में
कोई
हर्ज
नहीं
दिखा.

अब हमारे पास मात्र दो घंटे का समय था जिसमें हमें अपनी होटल पहुंच कर अपना सामान लेकर फिर 25 किलोमीटर
दुर
एयरपोर्ट
तक
पहुंचना
था.
हम
कितनी
भी
जल्दी
कर
लें,
यह
एक
असंभव
कार्य
था,
कारण
ट्राफिक
व
दुरी.
फिर
मैनें
दिल्ली
फोन
लगाया
तो
हमारी
ट्रेवल
एजेंट
नें
कहा
कि,
अब
मेरे
हाथ
में
कुछ
नहीं
है.
सच बात तो यह थी कि अब सारी गलती हमारी ही थी, हमने अपनी ट्रेवल एजेंट पर भरोसा करने के बजाय एयर इण्डिया के आफिस पर भरोसा किया. इसीलिये आज होटल छोडने से पहले मेल भी चेक नहीं किया.
पर तभी संदीप के दिमाग में बिजली कौंधी कि हम तो एयर इण्डिया के आफिस सुबह नौ बजे ही पहुंच गये थे, तब उन्होनें
हमें
क्यों
नहीं
बतलाया. हम गुस्से में वहां पहूंच गये. उन्होनें
चार्ट
देखा
व
कन्फर्म
किया
कि
हां
आपके
नाम
आज
दो
सीट
बुक
हो
चुकी
है.
हमारे
गुस्से
को
ठण्डा
करते
हुए
समझाया,
कि
हमने
तो
आफिस
खुलते
ही
चार्ट
देखा
था,
पर
उसमें
कोई
जगह
खाली
नहीं
होने
से
आपको
मना
कर
दिया
था.
अब
हमें
इतनी
लम्बी
लिस्ट
में
हमें
कैसे पता चलता कि इसमें आपका नाम भी है., पर मैं इस आज की इस बुकींग को केंसल कर देती हुं, ताकी आप आगे फिर किसी दिन जा पायें.
अब पछताय क्या होत, जब चिडिया चुग गयी खेत. फिर हताश – निराश एयर इण्डीया के आफिस के नजदीक
ही में प्रसिद्ध ओपेरा हाउस “पेलेस गार्नियर” के बाहर जाकर बैठ गये. जो खुबसुरत भवन हमें लुभाता था, वही आज बदसुरत लगने लगा. कुछ देर चुपचाप बैठे रहे, फिर ध्यान आया कि हमें दोपहर का भोजन का विपुल जी के यहां निमंत्रण है अतः उनकी दुकान पहुंच गये. हमारे उदास चेहरे देखकर विपुल जी नें पुछा क्या माजरा है? फिर हमें समझाते हुए बोले कि भगवान जो करता है, अच्छा ही करता है. चलो अब भोजन करते हैं.
ही में प्रसिद्ध ओपेरा हाउस “पेलेस गार्नियर” के बाहर जाकर बैठ गये. जो खुबसुरत भवन हमें लुभाता था, वही आज बदसुरत लगने लगा. कुछ देर चुपचाप बैठे रहे, फिर ध्यान आया कि हमें दोपहर का भोजन का विपुल जी के यहां निमंत्रण है अतः उनकी दुकान पहुंच गये. हमारे उदास चेहरे देखकर विपुल जी नें पुछा क्या माजरा है? फिर हमें समझाते हुए बोले कि भगवान जो करता है, अच्छा ही करता है. चलो अब भोजन करते हैं.
फिर दुकान अपने नेपाली सहायक के भरोसे छोडकर, हमें उसी भवन में स्थित अपने फ्लेट में ले गये. वहां प्रविष्ट
होते
ही
हमें
यह
आभास
हुआ
कि,
जैसे
हम
किसी
मन्दिर
में
आ
गये
हों.
एक
जटाधारी
सन्यासी
की
तस्वीर
देखकर
मैं
उनके
बारे
में
पुछे
बिना
नहीं
रह
सका.
विपुल भाई नें बतलाया कि ये उनके गुरुजी हैं जो, हिमालय स्थित आश्रम में रहते हैं. विपुल जी प्रतीवर्ष
उनके
दर्शन
के
लिये
जाते
हैं.
मैनें
स्वामी
जी
के
दर्शन
के
लिये
हिमालय
जाने
के
भाव
प्रकट
किये
तो,
विपुल
जी
नें
उत्साहित
होते
हुए
कहा
कि
अवश्य
जायें.
वे
मेरे
आगमन
के
बारे
में
खबर
कर
देंगे,
ताकी
ठहरने
की
उचीत
व्यवस्था
हो
सके.
फिर
हम
तीनों
नें
भोजन
किया.
इतना
स्वादिष्ट
भोजन,
मैनें
पिछले
एक
माह
बाद
खाया
था.
उसके बाद हम बातचीत करने बैठे तो दो घंटे कब निकल गये, पता ही नहीं चला, ऐसा लगा कि हमारी बरसों पुरानी जान पहचान है. नीचे दुकान से फोन आने पर विपुल भाई बोले कि अब मुझे नीचे जाना होगा. अब हमारा मन भी शांत हो चुका था. फिर उन्होने बडे भाई जैसी सांत्वना
देते
हुए
कहा
कि,
चिन्ता
ना
करें,
हिन्दुस्तान
वापसी
का
कोई
ना
कोई
रास्ता
जरुर
निकलेगा.
पर
जब
तक
पेरिस
रहें,
प्रतिदिन
मिलते
रहें.
जब मैने आपसे कहा था कि भगवान जो करता वह अच्छा करता है, तब शायद आपको मेरी बात उचीत नहीं लगी होगी किन्तु, आज अगर आप सुबह हिन्दुस्तान
चले
जाते
तो
शायद
फिर
हमारा
मिलना
कभी
नहीं
होता.
बाहर निकलने के बाद याद आया कि, आज सुबह बस स्टाप पर बुजुर्ग नें शाम को पांच बजे मिलने को कहा था. हम नियत समय पर पहुंचे, वे बुजुर्ग भी आ गये, व आत्मियता
से
मिले.
फिर
अपने
बारे
में
बतलाया
कि
उनका
नाम
रफीक
खान
है,
वे
लाहौर
के
रहने
वाले
हैं.
फ्रेंच
पुलिस
की
पेंतीस
साल
की
सर्विस
कर
रिटायर
हो
चुके
हैं,
व
अब
एक
निजी
कम्पनी
में
काम
करते
हैं.
उन्होनें कहा कि नजदीक ही में मेरे भतीजे का ट्रेवल एजेंसी है. वह कोई ना कोई उचित सलाह देगा. फिर हम गारे दु नोर्द रेल्वे स्टेशन के सामने उनके भतीजे के आफिस पहुंचे. उसने चाचा के साथ हमें भी सन्मान दिया. पुरी बात सुनने के बाद कहा, दिसम्बर के समय में सभी एयर लाइन्स फुल चल रही हैं. इसलिये एयर इण्डिया वालों से तो आपको कोई मदद मिलना मुश्किल ही है. एक तरीका यह है कि, आप हर दिन प्लेन छुटने के तीन घंटे पहले एयरपोर्ट
चले
जायें,
यदि
कोई
यात्री
अंतिम
समय
में
नही
आया
तो
आपको,
उसकी
सीट
पर
जाने
देंगे.
पर
आपको
रोज
आने
जाने
व
होटल
खाली
करने
की
जहमत
उठानी
होगी.
इस प्रकार आपको कुछ दिनों तक पेरिस रुकना पडा तो खर्च भी बहुत हो जायेगा. इससे तो अच्छा है, कि आप किसी दुसरी एयर लाईन्स का टिकट लेकर हिन्दुस्तान
चले
आये.
फिर
उन्होनें
हमें
उन
सभी
फ्लाईट
की
लिस्ट
दी
जिनमें
सीट
उपलब्ध
थीं,
किन्तु
दुगुनी
कीमतें
सुनते
ही
मन
बैठ
गया.
तभी उनकी बेटी जो हमारी बात सुन रही थी, बोली, एक बार उजबेक एयर लाइन्स को भी चेक करों. कम्प्युटर देखने के बाद उनका चेहरा खुशी से दमकने लगा, कि इतना सस्ता तो आपने एयर इण्डिया का टिकट भी नहीं खरीदा होगा.
साथ ही उसनें यह भी बतलाया कि, यह एयर लाइन्स बहुत कम चलती है, कारण इसके हवाई जहाज बहुत पुराने हैं, जो सोवियत संघ से विघटन के बाद मिले थे, इसलिये कीमतें कम होती हैं. मैं कल शाम की दो सीट होल्ड कर रहा हुं. आप तसल्ली से विचार कर लेना. अगर उचित लगे तो कल सुबह आकर पैसे देकर कन्फर्म टिकट ले लेना.
हम वहां से बडे संतुष्ट होकर निकले. ऐसा लग रहा था कि सिर से बोझ उतर गया है. हमनें रफीक भाई को
बहुत बहुत शुक्रिया कहा. व पुछा कि आपनें हम अनजान लोगों के लिये इतनी तकलीफ क्यों उठाई. तो वे बडे ही दार्शनिक अंदाज में बोले, बच्चों अगर जिन्दगी में कोई अपना हमवतन मुसीबत में हो तो आप भी उसकी मदद कर देना, बदले मे अल्लाह आपको महफुज रखेगा.
बहुत बहुत शुक्रिया कहा. व पुछा कि आपनें हम अनजान लोगों के लिये इतनी तकलीफ क्यों उठाई. तो वे बडे ही दार्शनिक अंदाज में बोले, बच्चों अगर जिन्दगी में कोई अपना हमवतन मुसीबत में हो तो आप भी उसकी मदद कर देना, बदले मे अल्लाह आपको महफुज रखेगा.
उनकी बातें सुनकर हम भावुक हो गये. आज हमें पाकिस्तानी
भाई
जैसे
लगने
लगे.
ऐसा
लगा
कि
ये
तमाम
झगडे
तो
राजनीतिज्ञों
द्वारा
पैदा
किये
हुए
हैं.
आम
हिन्दुस्तानी
व
पाकिस्तानी
तो
प्रेम
से
ही
रहना
चाहते
है.
इसके
बाद
भी
कई
देशों
में
मेरी
पाकिस्तानीयों
से
मुलाकात
हुई.
सभी
नें
मुझे
हिन्दुस्तानी
जानकर
सन्मान
दिया,
व
सहायता
करने
की
कोशिश
की.
अगले दिन हम सही सलामत ताशकंद होते हुए हिन्दुस्तान
पहुंच
गये.
अब
हमारे
पास
एक
टिकट
एयर
इण्डिया
व
एक
टिकट
उजबेक
एयर
लाइन्स
का
था,
इसका
मतलब
यह
था
कि
हम
आगामी
तीन
माह
में
एक
बार
फिर
पेरिस
यात्रा
कर
सकते
थे.
मैनें तत्काल ही स्पेन यात्रा की प्लानिंग
करली.
इस
पुरे
घटनाक्रम
से
यह
सबक
लिया
कि
ओपन
टिकट
लेकर
यात्रा
नहीं
करना
चाहिये.
हालांकी
आजकल
तो
सभी
एयर
लाइन्स
नें
ओपन
टिकट
देना
ही
बंद
कर
दिये
हैं,
व
यात्रा
दिनांक
बदलने
पर
भी
शुल्क
भी
वसुलते
हैं.
अगली फरवरी को नियत समय पर हम दोनों भाई उजबेक एयर लाईन्स से दोपहर को ताशकंद पहुंच गये. वहां से पेरिस के लिये अगली फ्लाईट लगभग तीन घंटे बाद थी. लाऊंज में हमारे साथ दिल्ली से आये अन्य यात्री भी थे, जिन्हे युरोप के अलग अलग शहरों मे जाना था.
ताशकंद इण्टरनेशनल
एयरपोर्ट
का
वेटींग
लाउंज
बाबाआदम
के
जमाने
का
दिखा.
दीवारें
बदरंग
व
फर्नीचर
टुटा
फुटा.
हद
तो
तब
हो
गयी,
जब
शौचालय
के
लिये,
प्लास्टीक
के
जग
को
हाथ
में
उठाकर
पानी
की
एक
होदी
में
से
पानी
भरकर
जाना
पडा.
हम लांउंज में बैठे थे कि, करीब अठारह साल का एक पंजाबी भाषी लडका सुखविन्दर
जिसकी
उम्र
लगभग
अठारह
साल
होगी,
पास
आया
व
पुछा
कि
आप
कहां
जा
रहे
हो.
हमारे
पेरिस
कहने
पर,
उसके
चेहरे
पर
खुशी
झलक
उठी,
और
बोला,
मैं
भी
पेरिस
जा
रहा
हुं.
क्या
मैं
आपके
पास
बैठ
जाउं?.
उसनें
अभी
बारहवीं
पास
की
है,
व
अपने
किसी
रिश्तेदार
से
मिलने
पेरिस
जा
रहा
है.
वह
अपने
घर
व
गांव
के
बारे
में
बताता
रहा.
तभी पेरिस जाने वाले यात्रीयों
के
लिये
बुलावा
आ
गया.
हम
खडे
हुए
तो
वह
बोला
कि
आप
मुझे
साथ
में
ही
रखना,
नहीं
तो
वे
पैसे
मांग
लेंगे.
मैं
उसकी
बात
नहीं
समझ
पाया.
फिर
हम
सिक्योरिटी
चेकींग
के
लिए
लाईन
में
खडे
हुए,
वहां
खडे
इमिग्रेशन
आफिसर
नें
हमसे
पासपोर्ट
लिया,
पेरिस
जाने
का
कारण
पुछा
व
हमें
आगे
जाने
दिया.
तब
सुखविंदर
बोला
कि
आप
मेरे
लिये
रुकना,
तो
हम
वहीं
खडे
हो
गये.
लेकिन
उस
आफिसर
नें
हमें
वहां
रुकने
नहीं
दिया.
कुछ समय बाद सुखविंदर
आया
व
बतलाया
कि
उस
आफिसर
नें
मेरा
पासपोर्ट
रख
लिया
व
सौ युरो मांगे, कहा
नहीं दोगे तो हिन्दुस्तान भिजवा देंगे, फिर पचास युरो पर मान गया. यह सुनकर मुझे गुस्सा आया, व कहा चलो उस आफिसर से पैसे वापिस मांगते हैं, तो वह बोला, नहीं रहने दो. विमान में भी हमारे पास वह बैठते हुए बोला कि आप बस मेरी इतनी मदद कर देना कि पेरिस एयरपोर्ट पर मुझे एक आदमी लेने आयेगा तक तक आप मेरे साथ ही रुक जाना. वह डरा हुआ दिख रहा था तो मैनें, उसे हां कर दिया. उसे पंजाबी ही आती थी, अंग्रेजी नहीं के बराबर व हिन्दी भी टुटी फुटी.
नहीं दोगे तो हिन्दुस्तान भिजवा देंगे, फिर पचास युरो पर मान गया. यह सुनकर मुझे गुस्सा आया, व कहा चलो उस आफिसर से पैसे वापिस मांगते हैं, तो वह बोला, नहीं रहने दो. विमान में भी हमारे पास वह बैठते हुए बोला कि आप बस मेरी इतनी मदद कर देना कि पेरिस एयरपोर्ट पर मुझे एक आदमी लेने आयेगा तक तक आप मेरे साथ ही रुक जाना. वह डरा हुआ दिख रहा था तो मैनें, उसे हां कर दिया. उसे पंजाबी ही आती थी, अंग्रेजी नहीं के बराबर व हिन्दी भी टुटी फुटी.
हमारा विमान रात नौ बजे पेरिस के चार्ल्स द गाल इन्टरनेशनल
एयरपोर्ट
पहुंचा.
इमीग्रेशन
चेकींग
के
बाद
बाहर
निकल
कर
वेटींग
लाउंज
में
एक
सोफे
पर
बैठ
गये.
सोचा
कि
सुखविंदर
को
इसके
रिश्तेदार
के
हवाले
कर
अपनी
होटल
चले
जायेंगे.
फिर सुखविंदर
नें
दस
युरो
का
एक
टेलिफोन
कार्ड
लिया
व
पास
ही
में
लग
रहे
चौगे
से
पंजाब
में
किसी
कुकी
चाचा
को
फोन
लगाया,
तब
जवाब
मिला
कि,
मैं
पता
करता
हुं
कि
तुम्हें
लेने
कौन
व
कितनी
देर
में
पहुंच
रहा
है.
उसनें आधे घंटे फिर फोन लगाया तो उसके चाचा नें बताया कि इन्तजार करों, तुम्हे लेने करीब घंटे भर बाद आदमी पहुंचेगा. पेरिस में रात की दस बज चुकी थे व हिन्दुस्तान
में
भी
रात
के
दो
बजने
वाले
थे.
हम
सोचने
लगे
कि क्या करे. तभी सुखविंदर
बोला
कि
प्लीज
आप
मुझे
छोडकर
मत
जाना.
सोचा
चलो
इसकी
मदद
कर
दी
जाये,
जैसे
रफीक
भाई
नें
पिछली
पेरिस
यात्रा
के
दौरान
हमारी
की
थी.
हम वही बैठे बैठे ही थकान के कारण उंघने लगे. फिर नींद खुली तो रात के बारह बज चुके थे, और किसी भी आदमी के अते पते नहीं थे. सुखविंदर नें एक बार फिर कुकी चाचा को फोन लगा, तो उन्होनें
इस
बार
जवाब
दिया
कि
अरे,
अभी
तक
कोई
नहीं
आया,
तुम
चिंता
मत
करों
वह
आता
ही
होगा,
व
हैलो
हैलो
कर
रिसीवर
रख
दिया
व
मोबाईल
का
स्वीच
भी
आफ
कर
दिया.
इसके बाद सुखविंदर
रोने
लगा,
तो
मुझे
लगा
कि
कुछ
गडबड
है.
उसनें
बतलाना
शुरु
किया
कि,
ये
कुकी
चाचा
लुधियाना
का
कोई
ट्रेवल
एजेंट
हैं,
जिसनें
तकरीबन
बारह
लाख
रुपये
युरोप
भेजने
के
नाम
पर
लिये
थे.
पहले
उसे
एक
बार
बैंकाक
भेजा
था.
फिर
पेरिस
के
टुरिस्ट
वीजा
मिलने
पर
यहां
भेज
दिया.
उसने
समझाया
था
कि
ताशकंद
में
सिक्योरिटी
आफिसर
अगर
रोके
तो
सौ
- पचास
युरो
देकर
मामला
सुलझा
लेना.
फिर पेरिस पहुंचने के बाद कोई बंदा उसे लेने आयेगा, जो किसी होटल में काम दिलवा देगा. अब हमें पुरी कहानी समझ में आ गयी कि, यह मामला तो कबुतरबाजी
का
है.
जिसमें
उसके
ट्रेवल
नें
उसे
पेरिस
तो
पहुंचा
तो
दिया
पर
आगे
की
जवाबदारी
से
मुंह
मोड
दिया.
अब स्थिती स्पष्ट थी कि सुखविंदर
को
अपना
रास्ता
खुद
चुनना
था.
मैनें
उससे
कहा
कि
वह
चाहे
तो
गांव
लौट
सकता
है,
पर
वह
लौटने
के
लिये
तैयार
नहीं
हुआ.
उसनें
बतलाया
कि
मेरे
घर
वालों
नें
खेत
का
टुकडा
बेचकर
मुझे
यहां
भेजा
है,
इसके
अलावा,
अगर
मैं
लौट
गया
तो
मेरी
अपने
गांव
व
रिश्तेदारों
में
इज्जत
कम
हो
जायेगी.
उसकी रामायण सुनते सुनते सुबह के चार बज चुके थे. रात भर जागने से थकान होने लगी थी. फिर हम तीनो मेट्रो से अपनी होटल तक पहूंचे. सुखविंदर
के
लिये
भी
एक
सिंगल
बेड
का
रुम
लिया,
व
मैनेजर
से
मोलभाव
करके
बीस
युरो
में
दिलवा
दिया,
कारण
अब
उसे
पैसे
बचाने
थे.
आज पेरिस में कोई विशेष काम नहीं था. तकरीबन एक बजे तैयार होकर सुबह के खाने के लिये उसी पाकिस्तानी
की
होटल
में
गयें.
वह
हमें
देखकर
बहुत
खुश
हुआ.
फिर
उसे
सुखविंदर
की
समस्या
बतलाई
व
एक
समय
का
खाना
पांच
युरो
में
तय
करवा
दिया.
सुखविंदर
के
पास
कुल
जमा
बारह
सौ
युरो
थे,
अतः
वह
एक
माह
तक
तो
आसानी
से
पेरिस
में
रुक
सकता
था.
सुखविंदर नें भोजन के बाद सोने की इच्छा प्रकट की, तो हम विपुल भाई के यहां पहुंच गये. उनसे बातें करते
हुए कब शाम हो गई पता ही नहीं चला. शाम का भोजन भी उन्ही के साथ किया. उनका अगली गुरु पुर्णिमा पर उत्तरखण्ड आने का प्रोग्राम था, तो यह तय रहा कि उन्हीं के साथ मैं गुरुजी के दर्शन के लिये हिमालय जाउंगा.
हुए कब शाम हो गई पता ही नहीं चला. शाम का भोजन भी उन्ही के साथ किया. उनका अगली गुरु पुर्णिमा पर उत्तरखण्ड आने का प्रोग्राम था, तो यह तय रहा कि उन्हीं के साथ मैं गुरुजी के दर्शन के लिये हिमालय जाउंगा.
रात को जब हम होटल लौट रहे थे, तब हमें मेट्रो में एक सरदार जी से मुलाकात हुई. मैनें उन्हे सुखविंदर
की
समस्या
बतलाई,
तो
उन्होनें
मुझे
नीदरलेंड
के
एक
गुरुद्वारे
का
पता
व
फोन
नम्बर
दिया
कि
उस
लडके
को
वहां
भेज
देना.
कुछ
ना
कुछ
मदद
जरुर
हो
जायेगी.
होटल जाकर हमने उस गुरुद्वारे
का
पता
दिया
व
समझाया
कि
अगर
तुम्हारी
कुकी
चाचा
कुछ
नहीं
करता
है
तो
फिर
इस
नम्बर
पर
बात
करके
देखना.
हम
लोग
आठ
दिन
बाद
बार्सिलोना
से
लौट
आएंगे,
इस
दौरान
अगर
कुछ
बात
नहीं
बनी
तो
फिर
हमारे
साथ
हिन्दुस्तान
लौट
चलना. फिर हम देर रात की ट्रेन से बार्सिलोना
चले
गये.
पेरिस में अफ्रीकी मुल के निवासी बहुतायत में हैं, जिनमें से कई गलत कामों में संल्ग्न हैं. यहां ठगी, जेबकटी, सामान छीनने की घटनाएं होती रहती हैं, इसलिये यात्रीयों
को
सावधानी
रखना
जरुरी
हैं.
बार्सिलोना
जाते
समय
रेल्वे
स्टेशन
पर
हमारे
साथ
भी
ठगी
का
प्रयास
हुआ.
दो
लडके
हाथों
में
कुछ
सिक्के
दिखाकर,
ध्यान
भटकाते
हुए,
हमें
सामान
से
दुर
ले
जाने
का
प्रयास
करने
लगे.
तभी
एक
रेल
कर्मचारी
नें
आकर
हमसे
कहा,
अपने
सामान
पर
ध्यान
रखो
और
उन्हें
डांटकर
भगा
दिया.
इसी
प्रकार
हमारे
एक
दोस्त
के
साथ,
देर
रात
मेट्रो
ट्रैन
में
सहायता
करने
के
बहाने
हैंड
बेग
छीन
लिया.
आठ दिनों बाद हम अपनी स्पेन यात्रा से पेरिस लौटे. होटल पहुंच कर सबसे पहले सुखविंदर
के
बारे
में
पता
किया.
मैनेजर
नें
बतलाया
कि
वह
तो
तीन
दिन
बाद
ही
कहीं
चला
गया
था,
बोलकर
भी
नहीं
गया
कि
कहां
जा
रहा
है.
हमारे
पास
उसका
हिन्दुस्तान
का
पता
भी
नहीं
था,
जो
हम
उसकी
खबर
लेते.
पेरिस
में
पंजाबी
भाषी
बहुतायत
में
है,
अतः
लगता
है
कि
किसी
ना
किसी
नें
तो
उसकी
मदद
कर
ही
दी
होगी.
या
हो
सकता
है
वह
नीदरलैंड
के
गुरुद्वारे
में
चला
गया
हो.
भगवान
जो
करता
है,
अच्छा
ही
करता
है,
यह
सोचकर
रह
गये.
दिन में फ्री थे, तो एक बार और आईफेल टावर देखने चले गये.फिर शाम को एयर इण्डिया के विमान से फ्रेंकफर्ट
होते
हुए
हिन्दुस्तान
के
लिये
रवाना
हो
गये.
इसके
बाद
भी
हर
मौसम
में
पेरिस
आना
हुआ.
सच
तो
यह
है
कि
इस
खुबसुरत
शहर
को
जो
एक
बार
देख
ले,
वह
यहां
दुबारा
आने
के
आकर्षण
से
बच
नहीं
सकता.
हालांकी
पिछले
एक
दशक
में
पेरिस
बहुत
बदल
चुका
है,
अब
यहां
सडको
पर
कुडा
कर्कट
दिखलाई
देना
लगा
है.
सडकों
पर
बेघरबार
लोग
भी
सोये
दिखलाई
देने
लगे
हैं.
इस
प्रकार
की
समस्याएं
अप्रवासीयों
के
आने
के
साथ
बढती
जा
रही
हैं.
सर्दियों में तो लगभग सूर्य देवता के दर्शन ही नहीं होते हैं पर यहांकि गर्मिया बहुत सुहावनी होती हैं जैसे कि हमारे यहाँ फरवरी – मार्च का समय। अतः पेरिस घुमने का उचीत समय अप्रेल से लेकर अगस्त है. पर अगस्त में पेरिस आने से बचना चाहिये, क्योंकि बच्चों के स्कुल कालेज की गर्मी की छुट्टीयां
शुरु
होने
से
अधिकांश
नागरीक
भी
अपने
संस्थान,
कार्यालय,
दुकाने,
रेस्टोरेंट
इत्यादी
बन्द
कर
छुट्टीया
मनाने
चले
जाते
हैं.
विनोद जैन
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